पारसनाथ में हथियार दिख रहे हैं । परंपरागत हथियार। दिल्ली की मीडिया को ये तीर-धनुष,फरसा-फावड़ा नहीं दिखे। उन्हें दिखे ‘शांतिपूर्ण’प्रदर्शन करते जैन धर्मावलंबी । इसीलिए चैनल्स के सेठों और मालिकों ने खर्चा कर पंद्रह सौ किलोमीटर दूर अपने पत्रकारों को विस्तृत कवरेज के लिए भेजा । टीवी की भाषा में ग्राउंड ज़ीरो की रिपोर्टिंग । खैर दो चार दिनों के प्रदर्शन का असर हुआ । टीवी वालों ने जैन धर्म के श्रद्धालुओं को पारसनाथ पहाड़ी दिला दी । आधिकारिक तौर से । सरकार ने अपने ही तीन साल पुराने फ़रमान को वापस ले लिया । कहते हैं पैसे में बड़ी ताक़त होती है । ‘अहिंसा’ में तो और बड़ी । गरीब-गुरबे को स्थानीय स्तर और सोशल मीडिया का ही सहारा मिला । चंद हजार आदिवासी मूलवासी उस पहाड़ी की तराई में इकट्ठा हुए जिसे उन्हें कभी भी हरा-भरा होने से नहीं रोका । कहते हैं पारसनाथ ही मरांग बुरू है । हर साल बैसाख पूर्णिमा के दिन हज़ारों आदिवासी मरांग बुरू सेंदरा मनाने पहुँचते रहे हैं । अब शायद नहीं पहुँच पाएंगें । सेंदरा पर्व आदिवासियों का परंपरागत पर्व है और इसे शौक़िया शिकार के तौर पर कभी नहीं देखा गया ।
बहरहाल दस जनवरी को झारखंड के पारसनाथ पहाड़ी में वो नजारा दिखा जो आज के पहले कभी नहीं देखा गया । अंग्रेजों के जमाने में भी नहीं जब पूरी की पूरी पहाड़ी बेच दी जाती थी। उस वक्त भी आदिवासियों का हक़ महफूज रहा । लेकिन राजनीति के ‘भक्तिकाल’ में आदिवासियों को लग रहा है कि उनका मरांग बुरू छीन गया । उन्हें ठग लिया गया । पैसे की ताकत के आगे झुक सरकार ने उनकी संस्कृति पर हमला कर दिया । इसीलिए मोदी और हेमंत के खिलाफ आक्रोश दिखा । खैर आदिवासियों ने पारसनाथ की पहाड़ के एक किलोमीटर ऊपर बने पूजा स्थल दिशोम माँझी थान तक पहुँच विरोध दर्ज कराया। आदिवासी अपने मरांग बुरू को सफेद मुर्गे की बलि देते आए हैं । आदिवासियों का कहना है कि जो काम सदियों से शांतिपूर्ण ढंग से चलता आया है उसे रोकने का अधिकार किसी को नहीं ।
पारसनाथ की पहाड़ियों का माहौल मीडिया की मेहरबानी और सरकारों के ‘खेल’ की वजह से बिगड़ चुका है । वर्षों से जैन तीर्थयात्रियों क डोली ढो रहे स्थानीय भोला कहते हैं “ जिन कंधों पर यात्री 27 किलोमीटर की यात्रा करते हैं वे कंधे मांस-मदिरा का सेवन करने वाले हमेशा से ही रहे हैं अब उन्हें अब हिंसक नजर आने लगे हैं ।” स्थानीय लोग कह रहे हैं कि उन्हें हमारे कंधे तो चाहिए मगर हमारी संस्कृति, हमारा समाज नहीं चाहिए । ये दर्द एक का नहीं है । घूमने आने वाले स्थानीय पर्यटकों,स्कूली बच्चों को भी अब भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। आरोप तो ये भी लग रहा है कि उनसे सम्मेद शिखर पर धर्म भी पूछा जा रहा है । स्थानीय आदिवासियों और तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के बीच की समरसता खत्म होती नजर आ रही है ।
दिल्ली वालों ने अपना काम कर दिया । जैन गुस्से में क्यों ? सम्मेद शिखर किसका? जैन धर्म के सबसे बड़े तीर्थस्थल का विश्लेषण, जीत गया जैन समाज.. जैसे टैगलाइन से खबरें दिखाने वाले अब नहीं बता रहे हैं कि गुस्से में क्यों आदिवासी ?.. आदिवासियों के सबसे बड़े तीर्थस्थल का विश्लेषण , हार गया आदिवासी समाज । दिल्ली की मीडिया दिखाईएगी भी नहीं । क्योंकि ना तो कोई आदिवासी दुनिया का सबसे अमीर आदमियों की लिस्ट में शुमार है और ना ही आदिवासियों की इतनी हैसियत है कि वो मीडिया के विज्ञापनों की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी रखे । कारोबारियों से तो अंग्रेज भी नहीं जीत सके थे । उनके लिए मेहनत, मेहनत और मेहनत का मतलब होता है अपने और दूसरों के लिए पूरा शरीर झोंक देना । नहीं तो पारसनाथ के पीरटांड़ के नोकनियां गाँव के लोग पांच -पांच किलो सरकारी अनाज के मारे -मारे नहीं फिरते । जंगली बीज से रोली बना कारोबारियों से बदले में नमक लेने वाले पीरटांड के नोकनियां गाँव की महिलाएँ सम्मेद शिखर के संगमरमर और पहाड़ी रास्तों में बने लकदक धर्मशालाओं को देख आहें भी नहीं भरतीं। उनकी सोच संगमरमर तक पहुँच-पहुँचे गोबर से लीपे घर फ़र्श पर ही फिसल जाती है । बच्चों से पूछा दूध मिलता है तो जवाब मिला कभी नहीं । छोटी-छोटी लड़कियाँ पारसनाथ के पीरटांड़ के जंगलों से हर कई किलोमीटर की चढ़ाई चढ़ जलावन की लकड़ियाँ इकट्ठा करतीं नजर आ जाएँगीं । स्कूल है तो मास्टर नहीं, मास्टर है तो मोदी के नीति आयोग की मेहरबानी स्कूल मिलों दूर । रही-सही कसर नक्सलियों के ख़ौफ़ ने पूरी कर दी । मगर सम्मेद शिखर चमक रहा है । हर साल करोड़ों का दान मिलता है । लाखों श्रद्धालु आते हैं । आलीशान धर्मशालाओं में रातें गुज़ारते हैं और पहाड़ की ख़ूबसूरती निहार अंग्रेंजों की देन पारसनाथ स्टेशन पर बैठ वापस धंधे में लग जाते हैं । अब पास में एयरपोर्ट भी बन चुका है । ऊपर-ऊपर पहाड़ चमक रहा है और अंदर ही अंदर उबल ।