मणिपुर में बलात्कार एक सुनियोजित नरसंहार का हिस्सा है।

दो महिलाओं को नग्न करके घुमाने के बाद उसके साथ बेरहमी से सामूहिक बलात्कार करने और उन्हें उपद्रवियों के हवाले छोड़ देने का कृत्य एक सुनियोजित नरसंहार है। इस घटना का एक वीडियो वायरल है। एक महिला के रूप में, यह कहना कि यह वीडियो रीढ़ तक भय और क्षोभ की झिनझिनाहट से भरा है कोई अतिशयोक्तिपूर्ण कथन नहीं है। यह किसी बात पर गुस्साये लोगों द्वारा बेहद सुनियोजित ढंग से किया गया कृत्य है। लगता है कि उनके क्रोध ने उनक विवेक को नष्ट कर दिया है। हालांकि इस कृत्य को अंजाम देने से लगता है कि वे विवेक शून्य ही थे।

हमेशा क्या करना है ये मिथ्याचारी स्त्रीद्वेषी लोग हैं जिन्हें किसी काम को पूरा करने के किराये पर लगाया जा सकता है। और वह कार्य क्या है? सरल भाषा में कहें तो यह कुकी समुदाय के लोगों के बीच इतना आतंक पैदा करने का काम है कि वे स्वेच्छा से मणिपुर से बाहर चले जाएं और जिसके बाद इम्फाल घाटी के मैतेई लोगों द्वारा उन छोड़ी गई जगहों पर कब्जा कर लिया जाएगा, यही कार्यप्रणाली रही है। यह तथ्य कि नफरत और बदले की विचारधारा से प्रेरित ये युवा खुद मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह की देखरेख में प्रशिक्षण ले रहे हैं और उन्होंने उनके प्रति अटूट वफादारी की शपथ ली है, बताने के लिए काफी है कि उन्हें एक कार्य दिया गया था और उन्होंने इसे अंजाम तक पहुंचाया है। न केवल शरीर बल्कि दो पूरी तरह से असहाय महिलाओं की आत्मा को नष्ट करने के भयानक कृत्य को दर्ज किया जाना चाहिए। इस कृत्य में परपीड़कता की झलक है, निम्नतम स्तर की चरित्रहीनता साफ दिख रही है, जिसके बारे में लोग मानते हैं कि सभ्य समाज में अब मौजूद नहीं है लेकिन क्षमा करें, मणिपुर में दूसरों के दमन, परपीड़न की प्रवृत्तियां मौजूद है और मैतेई समाज की तथाकथित महिला संरक्षकों- मीरा पैबिज- द्वारा इनका उत्साहवर्धन किया जाता है। उन्होंने अतीत में ऐसे रक्त-पिपासु खलनायकों की गिरफ्तारी को इस दलील पर रोका है कि वे मैतेई गौरव की रक्षा कर रहे हैं। और अब ‘मीरा पैबिज’- माशलची महिला संरक्षक चुप हैं! उनका दावा रहा है मानवाधिकारों के लिए मशाल जलाने का।

क्या उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं है जब दूसरे समुदाय की महिलाओं को सबसे क्रूर दुर्व्यवहार का शिकार होना पड़ता है? क्या महिलाएं आदिवासी और जातीय वफादारियों से इतनी बंधी हो सकती हैं कि वे बैठकर अपने बेटों और भाइयों को स्त्रीत्व की पवित्रता को तार-तार करते हुए देख सकें? मणिपुर में भी बहुत सारे शिक्षाविद हैं जो इस मुद्दे पर वाक्पटुता से बात कर रहे हैं और उन्होंने खुले तौर पर पक्षपातपूर्ण रुख अपनाया है। क्या वे अब इस बर्बर कृत्य के खिलाफ बोलेंगे जो न केवल ‘कुकी-ज़ो’ महिलाओं के खिलाफ, बल्कि मानवता के खिलाफ अपराध है? किसी ने ठीक ही कहा है कि जब कोई दार्शनिक राजनीतिज्ञ बनने का प्रयास करता है, तो वह दार्शनिक नहीं रह जाता।
युद्ध में बलात्कार को एक हथियार माना जाता है। तो क्या मणिपुर में कोई युद्ध चल रहा है, जहां कुकी-ज़ो लोगों को वश में करने और आतंकित करने के लिए बलात्कार को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया गया है? इन अत्याचारों की उत्पत्ति इस कथा में है कि कुकी-ज़ो लोग मणिपुर के मूल निवासी नहीं हैं, बल्कि बर्मा की चिन पहाड़ियों से आए प्रवासी हैं।

इतिहास हमें बताता है कि कुकी-ज़ो-पाइते लोग बर्मा की चिन पहाड़ियों में रहते थे जब क्षेत्रीयता का विचार अभी तक अज्ञात था और जब आज का उनका इलाका कम ऊबड़-खाबड़ और अधिक उत्पादक लगा तो वे मणिपुर में चले गए। तथ्य यह है कि उन्हें मैतेई राजाओं ने स्वीकार कर लिया और 1820 के दशक में बर्मा के खिलाफ लड़ाई में उनके योद्धा बन गए। बर्मा में भी मैतेई रहते हैं, इसलिए यह कहना कि कुकी-चिन घुसपैठिए हैं जिन्हें अब उनके घरों और चूल्हों से बाहर निकालने की जरूरत है, न केवल किसी भी सूरत में काबिले-बर्दाश्त नहीं है, बल्कि यह इतिहास को फिर से लिखने जैसा है, जो जोखिम भरा है।

सोशल मीडिया पर बातचीत में अंतर्निहित क्रूरताएं; लोकप्रिय मैतेई गायक ताप्ता द्वारा रचित गीत, जो खुले तौर पर कुकी के नरसंहार का आह्वान करता है और जिसके खिलाफ 13 जुलाई को शत्रुता, मानहानि और हिंसा को बढ़ावा देने के लिए एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी, सभी एक ही बात की ओर इशारा करते हैं – कुकी-ज़ो के लिए अंतर्निहित नफरत।
ध्यान रखें, तप्ता मैतेई के लिए एक नायक है। यह कुकी के प्रति जन्मजात घृणा है जो इतने समय से निष्क्रिय पड़ी है और जो अब अलग-अलग तरीकों से और विभिन्न चरमपंथी संगठनों द्वारा प्रकट हो रही है, जिनके पास हथियारों की कोई कमी नहीं है। यह पूछना ज़रूरी है कि हथियार कहां से आ रहे हैं! ताजा वीडियो का मामला, जिसने भारत और दुनिया भर में महिलाओं और पुरुषों के एक बड़े वर्ग के वजूद को झकझोर दिया है और जो अब कुकी-ज़ो समुदाय के साथ एकजुटता में खड़े हैं, केवल एक निंदा में समाप्त नहीं होना चाहिए। विवेक की इन आवाज़ों को क्षेत्र में जातीय-केंद्रित संघर्षों और दुर्लभ संसाधनों, विशेष रूप से भूमि की लड़ाई में अंतर्निहित संरचनात्मक हिंसा के ट्रिगर्स को खत्म करने पर काम करना चाहिए।आज मणिपुर को शीर्ष पर एक प्रबुद्ध व्यावहारिक व्यक्ति की जरूरत है, न कि एक ऐसे मुख्यमंत्री की जो खुले तौर पर पक्षपाती राजनीतिज्ञ है और जो मणिपुर को एक विफल राज्य में बदलते हुए देख रहा है। एक राज्य, जहां कानून का शासन खत्म हो गया है और वह केवल एक समुदाय (मैतेई ) के साथ खड़ा है। कुकी-ज़ो लोग मणिपुर की पहाड़ियों के निवासी हैं और उनके खिलाफ कोई भी उत्पीड़न तथ्यों को नहीं बदल सकता है।


अचानक के इस संघर्ष में वे शायद अब लड़ने में सक्षम नहीं होंगे। लेकिन आज के पीड़ित कल के उत्पीड़क हो सकते हैं। मनोवैज्ञानिक और मनोचिकित्सक हमें यही बताते हैं। भारत के उत्तर पूर्व में आदिवासी सुन्न मनस्थिति में हैं; वे स्तब्ध हैं, प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहे, लेकिन वे किसी बिंदु पर प्रतिक्रिया देंगे और यह कुछ ऐसा है, जिससे भारतीय राज्य को दो-चार होना पड़ेगा, संघर्ष करना पड़ सकता है ।

याद रखें यह एक संघर्ष क्षेत्र रहा है। भारत सरकार के साथ कई समूह अपनी गतिविधियों के निलंबन के समझौते के तहत रुके हैं। यदि ये समूह भूमिगत हो जाते हैं और फिर से राज्य से लड़ते हैं तो यह देश के हितों के विरुद्ध होगा।

India Today से साभार। अनुवाद: स्त्रीकाल डेस्क

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