विधि आयोग (LCI, Law Commission of India) द्वारा सभी मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों एवं आम जन समूह सहित सभी हित धारकों को समान नागरिक संहिता कर पर अपनी राय साझा करने के आमंत्रण के जवाब में कुछ स्त्रीवादी समूह एवं व्यक्ति 4-5 जुलाई 2023 को दिल्ली में जुटे, ताकि इसके ऊपर एक राय-मश्विरे से विचारपूर्ण मसविदा तैयार किया जा सके। स्त्रीवादी समूहों द्वारा द्वारा समान नागरिक संहिता पर दशकों से चर्चा होती रही है और 1990 के बाद से एक आम राय उभरी है कि परिवार संबंधित कानूनों ( Family Laws) के केंद्र में लैंगिक न्याय होना चाहिए ना कि एकरूपता ( यूनिफॉर्मिटी) या समानता, फिर चाहे वे कानून पर्सनल लॉ, अल्पसंख्यक धार्मिक समुदाय से संबंधित हों, या फिर अनुसूचित जनजाति के कस्टमरी लॉ से। इस परिचर्चा के आधार पर एक आम राय बनी, जो स्त्रीवादी समूह द्वारा इन मुद्दों पर दशकों से चली आ रही गंभीर बहस पर आधारित थी।
सेवा में,
माननीय आध्यक्ष महोदय व सदस्य
भारतीय विधि आयोग
14 जुलाई 2023
विषय: भारतीय विधि आयोग द्वारा 14 जून, 2023 को समान नागरिक संहिता पर राय देने के सार्वजनिक सूचना के प्रत्युत्तर में स्त्रीवादी, स्त्री अधिकार समूह, क्वीयर अधिकार समूह व निजी हैसियत में कुछ स्त्रीवादियों की प्रतिक्रिया
माननीय अध्यक्ष एवं सदस्य, भारत सरकार विधि आयोग, हम यहां स्त्रीवादी क्वीयर, स्त्री अधिकार समूह के साथ ही सरोकारी नागरिक के प्रतिनिधि के तौर पर राय दे रहे हैं,जो भारत भर में फैले विविध समुदाय में जेंडर जस्टिस और स्त्री समानता के मुद्दे पर काम करते रहे हैं। हम समान नागरिक संहिता के प्रसंग में वर्तमान में हो रही चर्चा पर दशकों के अपने साझे अनुभव के आधार पर राय रख रहे हैं।
हमारा निवेदन तीन खंड में खंडों है:
- इस विषय में विधि आयोग द्वारा अपनायी गयी चर्चा आरंभ करने की प्रक्रिया को लेकर
2. जेंडर जस्टिस ((लैंगिक न्याय) के बर-अक्स एकरूपता, समानता और भेदभाव-विरोधी मुद्दों को लेकर की गयी टिप्पणी से संबंधित
3. सभी को जेंडर जस्टिस दिलाने के प्रयास के आधार भूत सिद्धांत को लेकर - मकसद, प्रक्रिया और असर से संबंधित सरोकार:
हम विधि आयोग द्वारा सार्वजनिक सूचना जारी कर आम लोग एवं मान्यता प्राप्त धार्मिक समूह के विचार आमंत्रित करने करने पर अपनी गंभीर आपत्ति व्यक्त करें कर रहे हैं / हमारी चिंता व आपत्ति इस तरह से है:
अ) यह विडम्बना पूर्ण है कि विधि आयोग द्वारा आम लोगों से इस पर राय देने का देने के आमंत्रण के बावजूद इसको लेकर इन बिंदुओं पर जानकारी का घोर अभाव है:
i)वास्तव में समान नागरिक संहिता है क्या, कौन से मुद्दे उसके तहत आयेंगे?
ii)ऐतिहासिक भौगोलिक रूप से भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित विविध समुदाय के लिए शादी के संदर्भ में, विवाह-तलाक, संरक्षण, गोद लेना या दत्तक ग्रहण, भरण-पोषण और उत्तराधिकार के मामले में समरूपता का क्या मतलब होगा और विवाहेतर मामलों में इसका अर्थ होगा?
iii) इसके क्रियान्वयन के बारे में विधि आयोग की क्या दृष्टि है?
ब) बिना किसी ठोस प्रस्ताव, कोई रूपरेखा के लोगों को अपनी राय देने के लिए दिये गये अपर्याप्त समय के कारण एक बहस, जो लोगों के लिए एक गंभीर चर्चा बन सकती थी, उसे एक अत्यंत अपारदर्शी प्रक्रिया में बदल दिया गया, पॉलीटिकल नारेबाजी और सोशल मीडिया-अभियान द्वारा प्रचारित।
विभिन्न स्वार्थी समूह, जिनमें मंदिर से जुड़े संगठन, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन, और अन्य ऐसे समूह शामिल हैं,जो अत्यंत सांप्रदायिक अभियान छेड़ने के पक्ष में रहे हैं, वे विधि आयोग के समान नागरिक संहिता को लेकर अल्पसंख्यक धार्मिक समुदायों पर हमलावर हो रहे हैं। भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों के पिछले इतिहास को देखते हुए हो रहे पूरे प्रक्रम पर भारत भर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय, जनजातीय समाज और आदिवासी समाजों के द्वारा गंभीर चिंता जाहिर की गई है । यह अत्यंत निराशाजनक है कि कानूनी विचार करने वाली देश की संवैधानिक संस्था, भारतीय विधि आयोग (LCI), जिसका कानूनी सुधारों को लेकर 200 वर्षों का पुराना इतिहास रहा है, इतने गैर जवाबदेह व अभिमान पूर्ण तरीके से सार्वजनिक सूचना जारी कर रही है। एक ऐसे मुद्दे पर, जो बेहद जटिल और संवेदनशील है और जिसको लेकर दशकों से विरोध भी होता रहा है, उसके संबंध में एक बेहद कम जानकारी से लैस अलोकतांत्रिक प्रक्रिया को आरंभ किया गया है ।
यह और भी चिंताजनक है कि वर्तमान विधि आयोग इसी मुद्दे पर 2018 में 21वें विधि आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट का पर्याप्त संदर्भ लिए बिना इस मुद्दे को उठा रही है। ‘फैमिली लॉ में सुधार’ विषय पर अपने पत्र में जेंडर समानता के मुद्दे पर 21वें विधि आयोग ने कई अनुशंसाएं की है। अपने निष्कर्ष में आयोग ने कहा कि समान नागरिक संहिता इस समय न तो जरूरी है, और न ही अपेक्षित। इस समय समान नागरिक संहिता देश में सामाजिक सौहार्द के लिए नुकसानदेह है। आयोग ने सुझाया कि पर्सनल लॉ में सुधार संशोधनों के जरिए होना चाहिए, न कि उनको हटाकर। विधिक आयोग ने यह भी चिन्हित किया कि असमानता की जड़ में भेदभाव है, ना कि भिन्नताएं। आयोग ने प्राथमिकता तय करते हुए कहा कि जेंडर समानता धार्मिक समूहों के भीतर कायम की जानी चाहिए, न कि दो भिन्न धार्मिक समुदायों के बीच में ।
इसलिए 14 जून 2023 की सूचना सीधे तौर पर कहती है कि 22 वां भारतीय विधि आयोग इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार करने और उपाय ढूंढने को जरूरी समझता है, बिना इस बात को साफ किए कि दोबारा सोचने की जरूरत क्यों पड़ी। आगोग इस मुद्दे की गंभीरता को नजरअंदाज करता है, जो कि उन तमाम लोगों के जीवन पर असर डालेगी, खासकर महिला नागरिकों के जीवन पर। यह बहुत अस्पष्ट रूप से बहुत सारे अदालती आदेशों का उल्लेख करती है बिना इस बात की चिंता किये कि वह कौन से अदालती आदेश हैं, और उसमें किस मुद्दे को उठाया गया है, का उल्लेख किया जाए। किसी टर्म ऑफ रेफरेंस के अभाव में यह पूरी कवायद राजनीतिक ज्यादा और कानूनी कम मालूम पड़ती है ।
स) यह काफी परेशान करने वाली बात है की विधि आयोग ने समान नागरिक संहिता पर आम लोगों और मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठनों की राय मांगी है । सबसे बढ़कर यह त्रुटिपूर्ण अवधारणा कि भारतीय समाज को धार्मिक आधार पर समूहों में बांटा गया है और यह माना गया है कि उसका प्रतिनिधित्व केवल धार्मिक नेता या तथाकथित मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठन कर सकते हैं । परिणाम स्वरूप यह सार्वजनिक अधिसूचना इस बात को स्वीकार करने या मान्यता देने में असफल रहती है कि इस कानून से प्रभावित होने वाले प्राथमिक समूह में धार्मिक जातीय, जनजातीय, आदिवासी लैंगिक अल्पसंख्यक, अनिश्वरवादी निरीश्ववादी समूह की महिलाएं होंगी । इसलिए यह कदम महज पितृसत्तात्मक मान्यताओं को मजबूत करने का काम करेगा, जो यह मानती है कि जेंडर-जस्ट पारिवारिक कानून सुधार की पहल में उपरोक्त समूह प्राथमिक हितधारक नहीं है-जो इसे गहरे तौर पर भेदभावकारी प्रक्रिया बना देता है । ‘वाजिब तौर पर मान्यता प्राप्त धार्मिक संगठन’ शब्दावली भारतीय संविधान में कहीं भी उल्लिखित नहीं है, ना ही इसका उल्लेख किसी और कानून में है, जिससे धर्मनिरपेक्ष भारतीय संवैधानिक गणतंत्र शासित होता है ।
सरकार की ओर से विरोधाभासी और परस्पर विरोधी सार्वजनिक घोषणाएं यूसीसी को लेकर भ्रम की स्थिति को बढ़ा रही हैं। 2 जुलाई 2023 को भोपाल में, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया कि भारत को यूसीसी की आवश्यकता है क्योंकि देश “अलग-अलग समुदायों के लिए अलग कानून” की दोहरी प्रणाली के साथ नहीं चल सकता। फिर 7 जुलाई, 2023 को गृह मंत्री अमित शाह ने नागालैंड के मुख्यमंत्री को आश्वासन दिया कि, “सरकार ईसाइयों और कुछ आदिवासी क्षेत्रों को प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) से छूट देने पर सक्रिय रूप से विचार कर रही है।” कानून और न्याय पर संसदीय समिति के अध्यक्ष सुशील मोदी ने यह भी कहा है कि छूट अनुच्छेद 371 के तहत महाराष्ट्र, गुजरात, नागालैंड, असम, मणिपुर, आंध्र प्रदेश, सिक्किम, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों तक विस्तारित होगी। यदि ऐसा है, तो प्रस्तावित यूसीसी देश के किन हिस्सों और किन समुदायों में ‘एकरूपता’ लाने के लिए है? यह लैंगिक न्याय से किसकी रक्षा करेगा?
लैंगिक न्याय के संदर्भ में समरूपता समानता और भेदभाव पर टिप्पणी
अ) इस बात को दोहराना बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत जैसे बहुविध विविधता पूर्ण समाज वाले देश में विभिन्न समाजों के संदर्भ में, उनके भोगे यथार्थ में समाज के भीतर और दो समाजों के बीच भी काफी विविधता होती है।
1) प्रथागत कानूनों (Customary Laws )और प्रथाओं के अपवाद अधिकांश धार्मिक कानूनों में शामिल किए गए हैं, पाए जाते हैं।
2) आम पब्लिक धारणा के विपरीत यदि समान नागरिक संहिता लागू होती है तो हिंदू, मुस्लिम, इसाई पारसी सभी धर्मों के पर्सनल लॉ के साथ ही धर्मनिरपेक्ष कानूनों पर भी इसका असर होगा।
3) इसका प्रभाव सभी पारंपरिक कानूनों और आदिवासी एवं जनजातीय लोक व्यवहार पर पड़ेगा, जोकि संविधान के पांचवें और छठे शेड्यूल के द्वारा संरक्षित हैं। वह प्रचलन जो ना केवल परिवार और विवाह को लेकर है, बल्कि भूमि और संसाधनों के बंटवारे को लेकर प्रचलित व्यवहार को भी प्रभावित करेगा।
4) इसके अतिरिक्त प्रस्तावित समान नागरिक संहिता कानून पहले से अस्तित्व में गोवा के समान नागरिक संहिता कानूनों को भी प्रभावित करेगा जिस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है। इस पर और अधिक विश्लेषण और समझ कायम करने की आवश्यकता है।
ब) राज्य अर्थव्यवस्था द्वारा परिवार, समाज कानून और राजनीतिक दायरे में लैंगिक रुप से हाशिये पर स्थित लोगों के अधिकार न केवल धर्म बल्कि जाति,वर्ग, प्रजातीयता या विकलांगता और यौनिकता के द्वारा निर्धारित होते हैं। इसलिए यह धारणा की एकरूपता विभिन्न पदानुक्रम के आर-पार समानता की गारंटी होगी, एक धोखा देने वाली बात है, जो बहुसंख्यकवादी प्रवृत्ति के लिए चोर दरवाजा खोलती है।
स) विवाह संबंधी कानूनों के संबंध में केंद्र सरकार की स्थिति विरोधाभासी बनी हुई है:
(i) विवाह समानता के मामले पर सुप्रियो @ सुप्रिया चक्रवर्ती बनाम भारत संघ, डब्ल्यूपी (सी) संख्या 1011/2022 की सुनवाई में भारत संघ का प्रतिनिधित्व करने वाले भारत के सॉलिसिटर जनरल ने विवाह कानूनों में किसी भी बदलाव या हस्तक्षेप के खिलाफ जोरदार तर्क दिया, जिसमें कहा गया कि यह परिवार, विवाह, विरासत, गोद लेने के क्षेत्रों को नियंत्रित करने वाले कानूनों में 157 से अधिक कानूनी प्रावधानों को प्रभावित करेगा।
(ii) इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विवाह समानता मामले में केंद्र सरकार ने यह भी कहा कि विवाह एक धार्मिक संस्था है और व्यक्तिगत कानूनों के संहिताकरण के बावजूद, यह एक “संस्कार” है और इस प्रकार, व्यक्तिगत कानूनों की “पवित्रता” में हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
यह दोहरे चेहरे का प्रसंग है कि एकरूपता के नाम पर, भारत का वही संघ सभी व्यक्तिगत कानूनों को खारिज कर रहा है और परिवार में लैंगिक समानता से संबंधित सभी मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक सर्वव्यापी कानून का प्रस्ताव कर रहा है!
द) महिलाओं के खिलाफ असमान अधिकारों/भेदभाव को समाप्त करने के मामले पर, वर्तमान सरकार का रुख चयनात्मक और समस्याग्रस्त है। उदाहरण के लिए मुस्लिम समुदायों के बीच बहुविवाह के बहुचर्चित मुद्दे को लें, जिसके आसपास यूसीसी के वर्तमान प्रचार का अधिकांश भाग केंद्रित है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण – 5 (2019-20) से पता चलता है कि बहुविवाह का प्रचलन ईसाइयों में 2.1%, मुसलमानों में 1.9%, हिंदुओं में 1.3% और अन्य धार्मिक समूहों में 1.6% है। फिर भी, मुस्लिम समुदायों के भीतर बहुविवाह पर रोक लगाने पर ध्यान केंद्रित किया गया है, विभिन्न समुदायों में ऐसे द्वि- या बहुविवाह में महिलाओं के अधिकारों को सुरक्षित करने के किसी भी स्पष्ट इरादे के बिना। इसलिए हम सवाल करते हैं कि क्या सरकार सभी महिलाओं के लिए न्याय सुनिश्चित करने के लिए यूसीसी का प्रचार कर रही है, या इसे एक समुदाय को महिलाओं के प्रति भेदभावपूर्ण होने के रूप में चिह्नित किये जाने के अवसर के रूप में उपयोग कर रही है, भले ही डेटा एक अलग वास्तविकता का खुलासा करता है।
क) इसके अतिरिक्त, इस बात का कोई संकेत नहीं है कि प्रस्तावित यूसीसी निजी डोमेन में भेदभाव को खत्म करने के लिए 2018 से ही कानूनी परिवर्तनों को कैसे संबोधित करना चाहता है, जैसे:
(i) NALSA निर्णय, 2014 और परिणामी ट्रांसजेंडर व्यक्ति consequent Transgender Persons (Protection of Rights) Act, 2019. के माध्यम से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की मान्यता।
(ii) विवाह, परिवार और रिश्तेदारी की उभरती और बदलती अवधारणाओं को समाज में और अदालतों के माध्यम से सभी पहचानों ( धार्मिक-सामजिक) के उन लोगों द्वारा व्यक्त किया जा रहा है जो पारिवारिक कानूनों से सबसे अधिक प्रभावित हैं।
(iii) वैवाहिक संघर्षों के समाधान के रूप में वैवाहिक अधिकारों की बहाली की संवैधानिकता और निकाह ,हलाला की प्रथा के साथ-साथ विवाह समानता से संबंधित याचिकाएं, जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित हैं।
एक महिला के रूप में जीवन और हमारी स्वतंत्रताएं बढ़ते राजनीतिक बहुसंख्यकवाद के साथ-साथ समुदाय और राज्य के बढ़ाते रूढ़िवाद से प्रभावित हो रही हैं, जिसमें अंतरजातीय, अंतरधार्मिक और यहां तक कि अंतर-लिंग , मित्रता और विवाह का हिंसक विरोध किया जा रहा है। विभिन्न स्थानों से नारीवादियों के रूप में, हम एकरूपता नहीं बल्कि समानता की धारणा के लिए प्रतिबद्ध हैं, और विवाह और परिवार की संरचनाओं के भीतर और बाहर महिलाओं की स्वायत्तता की पुष्टि करते हैं।
लैंगिक समानता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए शासकीय सिद्धांत:
यह महत्वपूर्ण है कि कानून सुधार के सभी प्रयास इस समझ को पहचानें और इस समझ पर आधारित हों कि:
(i) लैंगिक असंतुलन और भेदभाव के पितृसत्तात्मक रूपों को ध्यान में रखते हुए विवाह और परिवार का क्षेत्र ऐसा होना चाहिए जिसमें परिवार और समुदाय में हाशिए पर/अल्पसंख्यक हितधारकों, जैसे कि विवाह संस्था के भीतर और बाहर की महिलाएं, समलैंगिक और ट्रांसजेंडर व्यक्ति, विकलांग व्यक्ति आदि को विवाह, तलाक, संरक्षकता, विरासत और पारिवारिक कानूनों से संबंधित अन्य मामलों में समान अधिकार प्राप्त होने चाहिए और इस प्रकार सुरक्षित किए गए अधिकार सुलभ और संरक्षित होने चाहिए, ताकि उनका प्रयोग हो सके।
(ii) इसके अलावा, कानून द्वारा संरक्षित को लागू करने की जिम्मेवारी सम्बंधित राज्य की सुनिश्चित की जानी चाहिए। सभी महिलाओं, विशेषकर हाशिए पर रहने वाले समुदायों और स्थानों की महिलाओं के लिए नागरिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अधिकार संरक्षित करने में राज्य की भूमिका महत्वपूर्ण और महत्वपूर्ण है। नागरिकों, विशेष रूप से अपने परिवारों के साथ तनाव में रहने वाले लोगों को दी गई मजबूत और सम्मानजनक सामाजिक सुरक्षा के आश्वासन के बिना, लैंगिक न्याय तक पहुंच और कार्यान्वयन सम्भव नहीं हो सकता है। भोजन, आश्रय, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका, पेंशन आदि की बुनियादी पात्रता एक जनादेश और दायित्व है जिसे राज्य को साक्ष्य के रूप में ठोस सकारात्मक उपायों और अधिनियमों के माध्यम से आश्वस्त करना होगा कि वह लैंगिक न्याय के बारे में गंभीर है।
(iii) लैंगिक न्यायसंगत ( जेंडर-जस्ट) पारिवारिक कानूनों की दिशा में कोई भी सुधार विविध धार्मिक कानूनों और प्रथागत प्रथाओं से सर्वोत्तम लैंगिक न्यायसंगत प्रथाओं पर आधारित होना चाहिए, जो वर्तमान समय की वास्तविकताओं के अनुरूप हों।
(iv) लैंगिक न्याय और समानता को साकार करने के लिए कानूनी प्रणाली पहुंच और सामर्थ्य के सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए, खासकर हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लिए।
(v) सभी वयस्क व्यक्तियों की व्यक्तिगत स्वायत्तता, और स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता का सम्मान किया जाना चाहिए।
हम भारत के विधि आयोग से इस गंभीर समस्याप्रद और अपारदर्शी प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने का आग्रह करते हैं। 2018 में अपने आखिरी निष्कर्षों के बाद से पूरे पांच साल बाद इस प्रक्रिया को 30 दिनों में पूरा करने की इतनी असाधारण जल्दबाजी इस ओर इशारा करती है कि यह प्रक्रिया राजनीतिक विचारों और दुर्भावनापूर्ण इरादे से अधिक निर्देशित हो रही है, न कि लैंगिक न्याय के से, जैसा कि दावा किया जा रहा है।
हम विधि आयोग से देश भर में सार्थक सार्वजनिक परामर्शों की एक श्रृंखला बुलाने का आग्रह करते हैं ताकि यह विचार किया जा सके कि देश भर में व्यापक रूप से भिन्न-भिन्न कानूनों, रीति-रिवाजों और प्रथाओं के सामने लैंगिक समानता कैसी होगी। सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को देखते हुए, व्यक्तिगत और प्रथागत कानूनों में कोई भी बदलाव जटिल होना तय है, और इसे भारतीय संविधान के ढांचे के भीतर खुले, पारदर्शी, लोकतांत्रिक और समावेशी तरीके से किए जाने की आवश्यकता है। ये परामर्श तब सभी भेदभावपूर्ण व्यक्तिगत और साथ ही धर्मनिरपेक्ष नागरिक कानूनों में बहुत जरूरी बदलावों की जानकारी दे सकते हैं।
जैसा कि 21वें विधि आयोग ने सही कहा है, “पारिवारिक कानून ( Family Law ) में सुधार के मुद्दे को ऐसी नीति के रूप में देखने की जरूरत नहीं है जो व्यक्तियों की धार्मिक संवेदनाओं के खिलाफ है, बल्कि इसे केवल धर्म और संवैधानिकता के बीच सद्भाव को बढ़ावा देने वाली नीति के रूप में देखा जाना चाहिए, ताकि कोई भी नागरिक अपने धर्म के कारण वंचित न रह जाए और साथ ही प्रत्येक नागरिक के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को समान रूप से संरक्षित किया जा सके।”
मुद्दे पर गहरे ध्रुवीकरण और विशिष्ट समुदायों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाए जाने को देखते हुए, उन सभी लोगों के साथ उचित बातचीत और परामर्श के लिए अनुकूल माहौल बनाने की जिम्मेदारी LCI पर है, जो ऐसे किसी भी कानूनी संशोधन से सबसे अधिक प्रभावित होंगे। इसके बिना, महिलाओं और अन्य कमजोर हितधारकों को, जिनके नाम पर यह अभियान कथित तौर पर किया जा रहा है, फिर से चुप करा दिया जाएगा और अदृश्य कर दिया जाएगा और पूरी कवायद केवल कुछ निहित राजनीतिक हितों की पूर्ति करेगी।
अंत में, हमारा मानना है कि विधि आयोग को परिवार-व्यवस्था में हाशिए पर मौजूद लोगों के विभिन्न नागरिक समाज संगठनों के साथ जुड़ना चाहिए। और जब आप अंततः ऐसा करेंगे तो हम आपके साथ आकर चर्चा करने को तैयार होंगे।
समान नागरिक संहिता (UCC) पर स्त्रीवादी समूहों का सबमिशन
अनुवाद: विनय ठाकुर
Contact:
- Saheli Resource Centre, Delhi
Email: saheliwomen@gmail.com
Tel: Vani Subramaniam 9821198911
2. Forum Against Oppression of Women
email: faow1979@gmail.com
Tel: Chayanika Shah 9819356365
साभार: काफिला।
Name | Organization |
Aarti Mundkur | Advocate |
Abha Bhaiya | Jagori G |
Abirami Jotheeswaran | All India Dalit Mahila Adhikar Manch |
Aisha Bashir | Anhad |
Amritananda Chakravorty | Advocate, Delhi |
Amrita Johri | Social activist |
Anita Cheria | Indian Christian Women’s Movement, ICWM |
Anjali Bhardwaj | Social activist |
Annie Raja | NFIW |
Apila Sangtam | Lawyer |
Archana Dwivedi | Researcher, Trainer |
Ashima R C | Saheli |
Bhavna Sharma | Anhad |
Bondita Mrina | WinG-India |
Brinelle D’souza | TISS |
Chayanika Shah | Forum Against Oppression of Women;Hasrat-E-Zindagi Mamuli |
Devika Tulsiani | Advocate |
Dhiya Ann Mathew | YWCA of India |
Dr Syeda Hameed | Muslim Women Forum |
Erica Roseline Toppo | Law Student |
Eva Lance | Law Student |
Gurbani Kaur B. | Law Student |
Hasina Khan | FAOW, Bebaak Collective |
Jaya Sharma | Activist |
Jhuma Sen | Advocate |
Kavita Srivastava | PUCL |
Kunjamma Mathew | YWCA of India |
Madhu Bhushan | Gamana Naveddu Nilladiddare |
Madhu Mehra | Partners for Law In Development |
Maimoona | AIDWA |
Mannat Tipnis | Advocate |
Maya John | Centre for Struggling Women (CSW) |
Navsharan Singh | Independent researcher and social activist |
Neha Mishra | YWCA of India |
Nivedita Menon | JNU |
Puja | Lawyer |
Purnima Gupta | Feminist Educator |
Ratna Appnender | Lawyer |
Rituparna | Activist, Delhi |
Ruchika Khavadiya | Law student |
Sabah Khan | Parcham |
Sadhna Arya | Saheli |
Sagrika | PLD |
Saumya Uma | Academic |
Shabnam Hashmi | Anhad |
Shashi Khurana | UWAD |
Sheba George | Activist |
Shomona Khanna | Advocate |
Shreosi Ray | Sappho |
Sitamsini Ch | Advocate |
Uma Chakravorty | Feminist Historian |
Urvashi Butalia | Zubaan |
Vani Subramanian | Saheli |
Vasudha Katju | Academic |
Veena Gowda | Advocate |
Vertika Mani | Lawyer PUCL |
Vrinda Grover | Advocate |
Zeba | Lawyer |