मदर इंडिया: एक संघर्षरत भारतीय स्त्री की अमर कथा

अंशु यादव और अरुण कुमार

मदर इंडिया: एक संघर्षरत भारतीय स्त्री की अमर कथा
‘मदर इंडिया’ फ़िल्म 25 अक्टूबर 1957 को प्रदर्शित हुई थी जिसके निर्माता और निर्देशक महबूब खान थे। यह भारतीय फिल्म इतिहास की अमर एवं महान कलाकृति है। यह फ़िल्म महबूब खान द्वारा ही सन 1940 में निर्देशित फिल्म ‘औरत’ की रीमेक थी। ‘मदर इंडिया’ फ़िल्म का शीर्षक कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ जो 1927 में प्रकाशित हुई थी, से लिया गया था। इस पुस्तक में भारतीय समाज की काफी आलोचना की गई थी। ‘मदर इंडिया’ फ़िल्म ‘द मदर’ (1934) पर आधारित है जिसमें एक चीनी महिला के संघर्ष को दिखाया गया है जिसका उसके पति ने परित्याग कर दिया था और वह महिला अकेले ही अपने बच्चों की परवरिश करती है व उन्हें काबिल बनाती है। ‘मदर इंडिया’ फ़िल्म में भी एक ऐसी ही भारतीय स्त्री के जीवन और उसके संघर्षों को दिखाया गया है जो पति की अनुपस्थिति में अपने परिवार का न केवल पालन पोषण करती है बल्कि सामंती समाज में अपने सम्मान और संपत्ति की रक्षा भी करती है।
‘मदर इंडिया’ फ़िल्म के पहले ही दृश्य में बुजुर्ग राधा का चेहरा क्लोज अप शॉट के साथ पूरे पर्दे पर दिखाई देता है जो मिट्टी को चूमते हुए अपने माथे से लगाती है। यह दृश्य मातृभूमि के प्रति प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति है। यह फिल्म स्वतंत्रता प्राप्ति के 10 वर्षों के बाद प्रदर्शित हुई थी और यह समय राष्ट्रवाद और राष्ट्र निर्माण का है। हमें सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बाद स्वतंत्रता मिली थी। देशवासियों के मन में स्वतंत्रता के प्रति ढेर सारी आशाएँ और आकांक्षाएँ थीं। यह फिल्म भी वर्षों की गुलामी के बाद देशवासियों के मन में जो आशाएँ और आकांक्षाएँ थीं उनकी अभिव्यक्ति है। वृद्ध महिला जब मिट्टी को चूम रही होती है उसके पीछे ट्रैक्टर से खेत जोता जा रहा होता है। इसके बाद बिजली के खंभे दिखाए गए हैं जिससे पता चलता है कि गाँव में बिजली आ गई है। फिल्म के अगले दृश्य में वही वृद्ध महिला अपने बेटे के साथ जीप में सवार होकर कहीं जाती हुई दिखाई देती है। फिर आधुनिक मशीनों से सड़क और पुल बनाने का दृश्य है। यह स्वतंत्रता के बाद विकास और आधुनिकता की ओर तेजी से कदम बढ़ाते भारत और उसके गांवों की तस्वीर है। इसके बाद नवनिर्मित बांध और नहर में बहते पानी को दिखाया गया है। इसके बाद गाँधीवादी टोपी और खादी का कुर्ता पहने कुछ सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता उसी वृद्ध महिला को नवनिर्मित बांध का उद्घाटन करने के लिए निवेदन करते दिखाई देते हैं। वृद्ध महिला झूले पर बैठी है और उसके पीछे उसका बेटा रेडियो बजा रहा है। वृद्ध महिला जहां बैठी है उसके आसपास का भी दृश्य दिखाया गया है जिसमें कुछ लोग बोरे में अनाज ढो रहे हैं। इससे पता चलता है कि यह महिला आर्थिक रूप से सम्पन्न है। पहले तो महिला बांध का उद्घाटन करने से मना करती है लेकिन लोगों के समझाने पर मान जाती है। बांध का उद्घाटन करते समय एक व्यक्ति उसे फूलों की माला पहनाता है और वह फूलों को सूँघती हुई अतीत में खो जाती है। अब फिल्म फ्लैशबैक में चली जाती है जहां यह वृद्ध महिला एक नई-नवेली दुल्हन बनी है और उसका विवाह शामू (राजकुमार) से हो रहा है।
‘मदर इंडिया’ में राधा (नरगिस) एक नई नवेली दुल्हन, एक पीड़ित लेकिन संघर्षरत मां और अंत में एक अत्यंत सम्मानित वृद्ध महिला की भूमिका में है। यह महिला एक के बाद एक नई त्रासदी झेलती है लेकिन हार नहीं मानती संघर्ष करती है। फ़िल्म के पहले भाग में एक खुशहाल किसान का जीवन दिखाया गया है। राधा विदा होकर ससुराल आती है और कुछ समय तक पति के साथ मधुर पलों का आनंद लेती है। यहाँ प्रेम भी है, श्रम भी है, सामाजिक मर्यादाएँ, तीज-त्योहार सबकुछ है। विवाह के कुछ दिन बाद राधा बुजुर्ग महिलाओं से नई बहू की खूबसूरती के साथ-साथ ऋण लेकर विवाह की चर्चा सुनती है। तभी उसकी सास आकर बुजुर्ग महिलाओं को डांटती हुई कहती है कि कौन नहीं पैसे उठाकर विवाह करता है, उतर जाएगा एक दिन। वह राधा को भाग्यशाली मानकर ऋण उतारने की कामना करती है। राधा गेंहू पीसती है, पशुओं को चारा खिलाती है, दूध दूहती है और घर के सारे काम करती है। शामू राधा को दिन भर काम करने पर मना भी करता है। एक गरीब किसान के पास प्रेम के लिए समय कहाँ मिलता है साथ ही भारतीय परिवारों में प्रेम बड़े-बुजुर्गों से बचकर करना पड़ता है। शामू कहता भी है- घर में मां का डर, बाहर दुनिया का डर प्रेम के लिए समय ही नहीं मिलता। इसके बावजूद फिल्मकार ने शामू और राधा के प्रेम के लिए समय निकाल ही लिया है। शामू को फसल के लिए भगवान पर भरोसा है तो पत्नी से वर्ष में चार बच्चों की कामना करता है। यह प्रेम और श्रम का अद्भुत संयोजन है।

राधा अपने पहले बेटे को जन्म देती है और शामू इतना खुश होता है कि फसलों में से ही दान करने लगता है। यहीं कहानी में सुखी लाला (कन्हैया लाल) का प्रवेश होता है जो राधा और शामू के खुशहाल जीवन में ग्रहण की तरह है। सुखी लाला महाजनी व्यवस्था का ऐसा क्रूर परजीवी प्राणी है जिसने भारतीय किसानों के जीवन को नारकीय बना दिया है। सुखी लाला के आते ही राधा और शामू के खुशहाल जीवन पर संकटों के पहाड़ टूटने शुरू होते हैं। सुखी लाल शामू से कहता है कि इन फसलों में उसका भी हिस्सा है और उसके हिस्से से वह दान न करे। शामू पूछता है कि उसका हिस्सा कितना है तो लाला जवाब देता है तीन हिस्सा मेरा और एक हिस्सा तेरा। दरअसल, शामू और उसके जैसे सारे किसान अशिक्षित हैं जिसके कारण सुखी लाला जैसे लोग उनसे ऋण के बदले कागज पर कुछ भी लिखवा लेते हैं और उसी के आधार पर जीवन भर शोषण करते हैं। सुखी लाला ने शामू से कर्ज के बदले ब्याज में कुल फसलों का तीन हिस्सा स्वयं लेने की बात इकरारनामा पर लिखवा ली है। ऋण के इस दुष्चक्र में फंसा किसान मृत्यु के बाद भी लाख प्रयासों के बावजूद इसके शोषण से मुक्त नहीं हो पाता। मदर इंडिया भी इसी ऋण के दुष्चक्र से बाहर निकलने के लिए छटपटाते भारतीय किसान की कहानी है। फिल्म की नायिका राधा इस कर्ज के दुष्चक्र से निकलने का जितना प्रयास करती है उतना ही अधिक फँसती जाती है।

अब राधा सुखी लाला से लिए गए ऋण को चुकता करने का बीड़ा उठाती है। इसी समय वह एक अन्य बच्चे बिरजू को जन्म देती है। राधा शामू के साथ मिलकर अपनी बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने का प्रयास शुरू करती है ताकि अधिक फसलों का उत्पादन कर कर्ज के बोझ को कम किया जा सके। लेकिन नियति को कुछ और मंजूर था। शायद भारतीय किसान की भी यही नियति है। तमाम प्रयासों के बावजूद असफल होना ही उसकी नियति है। राधा और शामू द्वारा अपनी बंजर जमीन को उपजाऊ बनाने के प्रयास में उसका बैल मर जाता है फिर पत्थरों से दबकर शामू के दोनों हाथ खराब हो जाते हैं। कर्ज में फंसा भारतीय किसान या तो मर जाता है या फिर सबकुछ छोड़कर भाग जाता है। कर्ज और विकलांगता के बोझ से दबा शामू भी अपने परिवार को छोड़कर कहीं दूर चला जाता है लेकिन राधा कहाँ भागे? वह अपने बच्चों के भविष्य के लिए संघर्ष का रास्ता चुनती है। वह हल चलाते हुए गीत गाती है- दुनिया में हम आए हैं तो जीना ही पड़ेगा/ जीवन है अगर जहर तो पीना ही पड़ेगा। ‘मदर इंडिया’ में पहली बार भारतीय स्त्री की एक ऐसी छवि प्रस्तुत की गई थी जो अपने परिवार की आजीविका के लिए खेत में बैल की जगह स्वयं को जोत देती है। एक ऐसी स्त्री जो तमाम अभावों में जीते हुए अपने सम्मान की भी रक्षा स्वयं करती है। भारतीय स्त्री की ऐसी छवि बाद की हिन्दी फिल्मों में भी बहुत कम दिखी। हिन्दी सिनेमा की अनगिनत नायिकाएँ तो बचाओ बचाओ की मुद्रा में ही दिखाई देती हैं। यह एक ऐसी फिल्म है जो भारतीय समाज में निर्मित स्त्री की पारंपरिक छवि को तोड़ती है। इस फ़िल्म ने स्त्री को नायक के रूप में प्रस्तुत किया। महबूब खान आधुनिक विचारों से युक्त फिल्मकार माने जाते हैं। उनकी फिल्मों में स्त्री का क्रांतिकारी रूप देखने को मिलता है। उनकी फिल्मों की स्त्रियां अपने अधिकारों और अस्मिता के लिए मुखर दिखाई देती हैं।
कर्ज के दुष्चक्र में फंसी राधा धीरे-धीरे बर्तन, जेवर, जमीन सबकुछ गिरवी रख देती है। पीतल के बर्तन में खाना खाने वाला परिवार मिट्टी के बर्तन में खाने लगता है। इसके बावजूद वह अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करती है। हर संकट का और भी अधिक मजबूती से सामना करती है। राधा पर आए संकट का लाभ उठाने की चाह में सुखी लाला उसका शारीरिक शोषण करना चाहता है। राधा ऐसा नहीं होने देती। वह खेतों में बैलों की जगह स्वयं को और अपने बेटों को जोत देती है। फसल कटने वाली होती है कि गांव में बाढ़ आ जाती है। इस बाढ़ में उसकी पूरी फसल डूब जाती है, मकान गिर जाता है, सारे सामान बह जाते हैं। वह अपने तीसरे बच्चे को खो देती है। इसके बावजूद हार नहीं मानती। गांव के बहुत सारे लोग पलायन कर जाते हैं लेकिन वह इसलिए गांव नहीं छोड़ती क्योंकि उसे लगता है कि उसका शामू लौटकर जरूर आएगा। राधा शिक्षा के महत्व को जानती है इसलिए वह अपने दोनों बेटों को स्कूल भेजती है। यहाँ शिक्षक भी गरीबों और किसानों के बच्चों को शिक्षित करने के विरोधी हैं इसलिए वे राधा के दोनों बेटों की बेवजह पिटाई करते हैं। बिरजू शिक्षक की आंख में गुलेल से मारकर भाग जाता है और दुबारा कभी स्कूल नहीं जाता। बाद में रामू भी स्कूल छोड़ देता है।
राधा के दोनों बेटे रामू और बिरजू दो अलग-अलग विचारों के हैं। ये दोनों दो विचारधाराओं के प्रतिनिधि पात्र हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया पर कई विचारधाराओं का प्रभाव पड़ा। गाँधीवादी, समाजवादी, मार्क्सवादी आदि कई विचारधाराओं से लोग प्रभावित हुए। इन सभी विचारधाराओं से प्रभावित लोगों ने अपने-अपने तरीके से राष्ट्र निर्माण की रूप रेखा तय की। इनमे दो विचारधाराओं गांधीवाद और मार्क्सवाद से भारत के युवा खूब प्रभावित थे। गाँधीवाद अहिंसा में विश्वास करता है और अहिंसक तरीके से ही राष्ट्र निर्माण और सामाजिक परिवर्तन का पक्षधर है तो वहीं मार्क्सवाद सामाजिक परिवर्तन के लिए हिंसा का भी सहारा लेता है। राधा का बड़ा बेटा रामू अहिंसा में विश्वास करता है इसलिए वह गाँधीवाद का प्रतिनिधि पात्र है। छोटा बेटा बिरजू हिंसा में विश्वास करता है इसलिए वह मार्क्सवाद का प्रतिनधि पात्र है। फिल्म में कई जगहों पर रामू अपने छोटे भाई बिरजू को हिंसा करने से रोकता है। ऐसा लगता है कि जैसे महात्मा गांधी ही अहिंसा का संदेश दे रहे हों। महबूब खान मार्क्सवाद से प्रभावित थे इसलिए फ़िल्म की कहानी बिरजू पर केंद्रित हो गयी है। बिरजू एंटी हीरो है लेकिन दर्शकों की सहानुभूति उसी के साथ है। बिरजू हिंसा के बल पर शोषण और अत्याचार को खत्म करने का पक्षधर है। एक बार जब सुखी लाला फसलों में से अपना तीन हिस्सा लेने आता है तो बिरजू को गेहूं के बोरों की ढेर पर कटार लेकर बैठा हुआ दिखाया गया है। बिरजू लाला को धमकाता हुआ कहता है- ‘तुमने कौन सा हल चलाए जो हिस्सा लेने आ गए?’ मार्क्सवाद स्पष्ट मानता है कि जो जोतेगा वही काटेगा। वह लाला की साढ़े पांच रुपए की छतरी तोड़ देता है। ऐसा लगता है कि सुनील दत्त द्वारा निभाया गया बिरजू का यह किरदार 1960 के बाद के दशक में अमिताभ बच्चन के ‘एंग्री यंगमैन’ के रूप में विकसित हुआ है।
बिरजू शोषण और अत्याचार से मुक्ति के लिए डाकू बन जाता है। हालांकि हमारा समाज जिस बिरजू को डाकू कहता है उसे पान सिंह तोमर फिल्म का नायक उसे बागी कहता है। सुखी लाला की बिटिया के विवाह की रात बिरजू डाकुओं के अपने गिरोह के साथ धावा बोलता है। वह सुखी लाला की तिजोरी से अपनी मां के कंगन सहित गाँव वालों की जमीनों के कागजात निकाल लेता है। बिरजू उन कागजातों को आग के हवाले कर देता है। राधा लगातार बिरजू को ऐसा करने से मना करती है लेकिन वह नहीं मानता। जब बिरजू सुखी लाला की बिटिया का अपहरण करके घोड़े पर ले जा रहा होता है तो राधा उसे गोली मार देती है। एक स्त्री की सम्मान की रक्षा के लिए एक मां अपने ही बेटे की हत्या कर देती है। एक ऐसी स्त्री जो पूरी फिल्म में अहिंसा की पक्षधर है अपने ही बेटे की हत्या कर देती है। वह भी उस स्त्री के सम्मान की रक्षा के लिए जिसका पिता ही उसके दुखों का कारण है और जो हमेशा उसे अपमानित करता रहता है। यहीं राधा का ध्यान टूटता है और कहानी फ्लैशबैक से निकलकर वर्तमान में आ जाती है। वह बांध का उद्घाटन करती है और नहर का पानी खेतों में पहुंचकर फसलों को सींचने लगता है।

‘मदर इंडिया’ की कहानी दो भागों में विभाजित है। कहानी का एक भाग स्वतंत्र भारत में हो रहे विकास कार्यों को चित्रित करता है। राधा का बड़ा बेटा रामू स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की परिस्थितियों में आर्थिक रूप से सम्पन्न हो गया है। यहाँ राधा का भी खूब सम्मान है और सभी उसे माता कहते हैं और उसी से बांध का उद्घाटन कराते हैं। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को यह बात इतनी अधिक पसंद आई थी कि उन्होंने भी छह दिसंबर 1959 को झारखंड में दामोदर वैली कॉर्पोरेशन द्वारा बनाई गई पंचेत बांध का उद्घाटन एक मजदूर आदिवासी महिला बुधनी माँझिआइन से कराया था। कहानी का दूसरा भाग स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले का है जहां सामंती व्यवस्था में पिसते एक गरीब किसान स्त्री के जीवन की दयनीय स्थिति और उसके संघर्ष का चित्रण है। महबूब खान ने कहानी के दोनों भागों को इतना संतुलित ढंग से प्रस्तुत किया है कि फिल्म एक महाकाव्य बन गई है। इस फ़िल्म की शूटिंग मुम्बई के मेहबूब स्टूडियो व महाराष्ट्र, गुजरात और उत्तर प्रदेश के गांवों में हुई थी। फ़िल्म का फिल्मांकन मुख्य रूप से समन्वयक (सिंक) साउंड पर किया गया था। मेहबूब खान डबिंग को बहुत कम पसंद करते थे इसलिए डबिंग बहुत कम की गई थी। फ़िल्म के संवाद हिन्दी और स्थानीय देशी भाषा में थे। फ़िल्म के संगीत निर्देशक नौशाद ने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के लिए आर्केस्ट्रा के साथ-साथ कुछ अभिनव प्रयोग भी किए थे जिसके कारण इसके गाने आज भी लोकप्रिय हैं। अभिनय के लिए इस फिल्म ने नरगिस, सुनील दत्त, राजकुमार, राजेन्द्र कुमार और कन्हैया लाल को अमर कर दिया। फ़िल्म को 5 फिल्मफेयर और 2 राष्ट्रीय पुरस्कार सहित 9 पुरस्कार मिले थे। यह पहली ऐसी भारतीय फिल्म थी जिसे विदेशी भाषा समूह में ऑस्कर पुरस्कार के लिए नामित किया गया था लेकिन 1 वोट कम मिलने के कारण वह पुरस्कार से वंचित रह गयी थी। भारत में इस फ़िल्म को अपार सफलता मिली इस कारण इसे स्पेनिश, फ्रेंच, रूसी भाषाओं में भी डब किया गया था। दर्शकों ने यूरोपीय देशों में भी इस फ़िल्म को खूब पसंद किया था।

लेखक परिचय:

डॉ अंशु यादव, असिस्टेंट प्रोफेसर, हंसराज कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

डॉ अरुण कुमार, असिस्टेंट प्रोफेसर, पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय, पटना।
सम्पर्क- 8178055172

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ISSN 2394-093X
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