तेजाब हिंसा से संबंधित खबरों के शीर्षकों की बानगी देखिए-
. प्रेम प्रस्ताव ठुकराए जाने पर युवती पर फेंका तेजाब…
. बाइक सवार बदमाशों ने छात्रा पर फेंका…
.शादी से इंकार करने पर…
. जेठ से विवाह करने से इंकार किया तो…
और क्रूरता की हद देखिए…
.शादी की पहली रात ही दुल्हन के गुप्तांगों पर…
.रेप पीडि़ता की मदद करने वाले वकील पर…
इसके अलावा कुछ खबरें ऐसी भी बनती हैं जैसे कि घरेलू झगड़ों में… आपसी रंजिश में… इच्छित गवाही न देने पर… दबंगई के चलते… सबक सिखाने के लिए… इत्यादि इत्यादि।
तेजाब हथियार की मानिंद प्रयोग किया जा रहा है। अन्य हथियारों को रखने के लिए लाइसेंस की जरूरत होती है, लेकिन तेजाब बेचने वालों के लिए या खदीदने पर कोई नियम आड़े नहीं आता। कुछ समय पहले तक कोई नियम कानून नहीं था, अभी 2013 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को एसिड की बिक्री पर रोक लगाने और सख्त नियम बनाने के लिए आदेश दिए थे और अधिकतम तीन महीने का समय दिया था। उसके बावजूद भी घटनाएं साफ इशारा करती हैं कि तेजाब की बिक्री खुलेआम चल रही है।
यूं तो भारतीय कानून ने तेजाब हमले को विशिष्ट दण्डनीय अपराध की कोटि में रेखांकित करते हुए अपराधी के लिए दस साल की सजा मुकर्रर की है लेकिन कोर्ट में लटके हुए सैकड़ों से अधिक मामले कोई दूसरी ही कहानी बयां करते हैं। वही हाल सहायता राशि के संबंध में भी है। यूं तो तेजाब पीडि़ता को अब उसके इलाज के लिए पांच लाख रुपए की सहायता दी जानी नियमानुसार है, उसमें भी पहले सप्ताह ही एक तिहाई राशि दी जानी चाहिए किंतु कुछ दिनों पहले ही मैंने अखबार में पढ़ा कि सहायता राशि न मिलने पर कलेक्टर ऑफिस के सामने परिजनों ने सामूहिक आत्महत्या का प्रयास किया। इसके अलावा भी अनेक उदाहरण हैं। नियमों की जटिलता और जानकारियों का अभाव भी पीडि़त के रास्ते में दीवार-दर-दीवार खड़े करते जाते हैं।
क्या सजा के खौफ से तेजाब हमलों को रोका जा सकता है ( ! )
इसी वर्ष 9 सितंबर 2016 को ही तेजाब हिंसा से संबंधित एक केस को अदालत ने जघन्य अपराध मानते हुए अभियुक्त को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई है। यह फैसला तेजाब हिंसा के मामले में चिन्हित करने वाला है। (मृत्युदण्ड मिल पाया या नहीं यह एक अलग मुद्दा है)
ये तो खबरों, हिंसा के कारणों पर और नियम-कानूनों-प्रावधानों पर एक सरसरी निगाह डालने जैसा था। इन सबके इतर यहां महत्वपूर्ण यह है कि आखिर लोग इतने क्रूर क्यों हैं? यह तेजाब हमला जिसकी शिकार 80 फीसदी से अधिक महिलाएं ही हैं, क्यों ये लड़कियां इस क्रूरतम हिंसा की चपेट में अधिक आती हैं? भारत के साथ ही पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान, कंबोडिया जैसे देशों में अच्छे खासे प्रतिशत लोग तेजाब पीडि़त हैं। यहां तो एक सीधा सपाट या बयान यह दिया जा सकता है कि ये क्षेत्र अपेक्षाकृत शिक्षा, जागरुकता आदि दृष्टियों से पिछड़े हुए हैं। परंपराओं, कुरीतियों में जकड़े हुए हैं लेकिन इंग्लैंड में भी 2004-05 में पचपन केस तेजाब हमले के अस्पताल रिकार्ड के अनुसार थे। और 2014-15 में यह संख्या 106 पहुंच गई। यह संख्या पाकिस्तान के मुकाबले (वहां काम कर रहे ‘सर्वाइवर्स फाउंडेशन’ के मुताबिक 2012 में 7,516 तेजाब हमले के शिकार थे) कम है किंतु उसका (तेजाब हमलों) अस्तित्व ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस जैसे विकसित, शिक्षित व जागरुक देशों में भी है।
हम अपने देश की ही बात करें तो आज कई फाउंडेशन इस दिशा में कार्यरत हैं। बदलाव लाने की कोशिश की जा रही है। ‘स्टॉप एसिड अटैक’, ‘एसिड सर्वाइवर्स फाउंडेशन’ और कई इस दिशा में कार्यरत हैं। ‘स्टॉप एसिड अटैक’ को अमेरिका का ‘बॉब्स 2016 सोशल चेंज अवार्ड’ भी मिला है।
इन सबसे इतर इस दिशा में सोचने और गहरे मंथन करने की जरूरत यहां है कि आखिर ऐसे अपराध लड़कियों के मामलों में ही अधिकतम क्यों हो रहे हैं?
हमें समझने की कोशिश करनी चाहिए कि ये घटनाएं आखिर किस ओर इशारा करती हैं? इनकी जड़ों में क्या छिपा हुआ है? गहराई से देखें तो बलात्कार से भी अधिक मारक असर तेजाब हिंसा का होता है। बलात्कार पीडि़ता शारीरिक से अधिक मानसिक प्रताडऩा की शिकार होती है। समाज में गहरे धंसी वर्जीनिटी (शुचिता) एक ऐसी अवधारणा है जिसके मानसिक प्रभाव से रेप पीडि़ता अधिक प्रताडि़त होती है किंतु तेजाब हमले में यदि वह बच भी जाती है तो जिंदगी भर न जाने वाले दाग और हर सुबह आईना देखते ही ‘डरावने’ शब्द से सामना करती है। अंतहीन दर्द, बार-बार होने वाली सर्जरी उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा बन जाती हैं। और सबसे अहम आत्मविश्वास ही डगमगा जाता है। हर सुबह वह घटना दोहराई जाती है, खुद की परछाई से ही डर!!
क्या इसे ही जंगलराज कहते है योगी जी
इनके, यानी तेजाब पीडि़तों के रूबरू होते ही, उनकी मानसिक, शारीरिक और आर्थिक दुश्वारियों को जान-समझकर और कि आखिर ये घटनाएं होती क्यूँ हैं? जैसे प्रश्नों का सामना करते ही राकेश सिंह नाम का एक शख्स लोगों को समझाने और अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर खोजने एक अदद साइकिल लेकर निकल पड़ा। राकेश सिंह का जन्म बिहार में हुआ है। उच्च शिक्षा लेने के बाद कुछ साल उन्होंने एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी भी की। राकेश लेखक भी हैं। इनकी पहली पुस्तक बीबीसी द्वारा जारी की गई सूची के अनुसार (2010) में टॉप 10 में थी। और अचानक ही नौकरी, लेखन, ऐशोआराम सब छोडक़र जेंडर जागरुकता अभियान पर साइकिल से निकल पड़े। राकेश सिंह कहते हैं कि- ‘इन घटनाओं के सामान्य कारण देखो तो घोर आश्चर्य होता है कि एक दिन पहले तक प्रेमिका के कदमों में चांद-तारे तोड़ कर डाल देने की बात करने वाला युवक, अगले दिन उसी के चेहरे को तेजाब से नहला देता है।’ कैसे वह इतना क्रूर हो जाता है? आखिर उसके भीतर क्या धंसा होता है जो कि वह इतना अमानवीय, असंवेदनात्मक काम को कर सकता है?
लगभग अभी तक ग्यारह राज्यों (तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पांडिचेरी और अभी वे महाराष्ट्र यात्रा पर हैं) की साइकिल यात्रा कर, देश को अलग-अलग कोणों से देख-पहचान कर, वे इनसे पीछे छिपे कारण की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि- ‘पितृसत्ता द्वारा लडक़ा-लडक़ी की अलग-अलग तरीकों से की गई परवरिश, सभी धर्मग्रंथों और उनके पैरोकारों द्वारा अलग-अलग चिन्हित मान्यताएं और समाज में स्त्री की वनिश्त पुरुष की सुपीरियर पोजीशन मनवाती हुई परंपराएं (उन्हें हम रूढिय़ाँ ही कहें) ही वे मुख्य कारक हैं जिससे पुरुष हमेशा ही खुद को स्त्री से बेहतर और प्रेम में भी खुद को शासक ही मानता है। उन्हें ‘न’ सुनना मंजूर नहीं। एक पुरुष को इतना असंवेदनशील, समाज की जड़ों में जमी सदियों पुरानी परंपराएं और रूढिय़ां ही बनाती हैं जिन्हें हम कभी बदलने की कोशिश नहीं करते।’
प्यार पर न चढाओ हैवानियत की चादर
दहेज प्रथा, शिशुवध, बलात्कार और तेजाब हमले जैसी घटनाएं जेंडर के नीचे दबे हुए प्रश्नों का प्रतिफल हैं। ऐसे प्रश्नों को सामाजिक रूढिय़ों की कारा से बाहर निकालकर, उनके उत्तर लोगों को समझाना बेहद जरूरी है। उत्तर आधुनिकता के दौर में जब पूरी दुनिया ‘एक गांव- मुहल्ले’ में तब्दील हो गई है। संचार क्रांति ने दूरियों के पैमानों को समाप्त कर दिया तब भी स्त्री और पुरुष जेंडर के बीच वही दूरी कायम है, वे अभी भी अलग-अलग प्रांत हैं। दिन-रात साथ रहते काम करते हुए भी मकान के दो तल्ले हैं। पुरुष शासक और स्त्री मजदूर। इस उत्तर को पाने के कारणों की तह में जाकर उन्हें पाटना होगा तभी तेजाब हिंसा जैसे क्रूर से क्रूरतम अपराधों पर अंकुश लगाना संभव हो सकेगा।
ये क्रूरताएं हमारे समय और देशकाल के चेहरे पर काले धब्बे हैं। ये कहानियां यूं नहीं खत्म होंगी। राकेश सिंह जैसे जज़्बेवाले कितने ही लोग लड़-भिड़ रहे हैं। हमें भी उनकी जंग में शामिल होना होगा। हर बदलाव मुमकिन होते हैं। हर समय को अपने भीतर ही औजार ढूंढऩे होते हैं।
पाश ने कहा भी है-
जब बंदूक न होगी तब तलवार होगी
तलवार न हुई, लडऩे की लगन होगी
लडऩे का ढंग न हुआ, लडऩे की जरूरत होगी
और हम लड़ेंगे साथी…
आखिरी में जो लड़ रहे हैं, इस तेजाब पीडि़तों के लिए और वे सब भी जो हमारे समय की क्रूरता, असंवेदना और विशेषकर लैंगिक मानसिकता के शिकार हुए हैं, उनके लिए- कामरेड पेरिन दाजी के शब्दों में-
अपने लिए जिए तो जिए
तू जी ऐ दिल जमाने के लिए…
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