विभागाध्यक्ष , हिन्दी विभाग , गुलबर्गा वि वि, कर्नाटक में प्राध्यापिका और. परिमला आंबेकर मूलतः आलोचक हैं. हिन्दी में कहानियाँ अभी हाल से ही लिखना शुरू किया है. संपर्क:09480226677
औरतों का मन और उसकी मानसिकता को भला कौन नहीं जानता…? घर बैठे हर ज्ञान का हर विज्ञानी व्यवस्था का हर तंत्रज्ञान के परिणामों एवं अंजामों का रिप्लिका ढूंढ निकाल लेती है वह। उसका अपना घर ,उसका अपना आंगन उसका अपना घर के पीछे का गत्ता बस उसके लिये काफी है विश्व के प्रतिरूप को गढने के लिये। आज के दौर में फेसबुक, एक मैजिक दंड है जो औरत के हाथ लगा है। किसी की मेहरबानी ही नही, किसी की कृपादृष्टि ना भी तो सही, जी हुजूरी भी नहीं, डर भी नहीं, बस जामे जमशेद का करामत, कि बटन के दबने की देरी…टच स्क्रीन पर देखते जाओ, पढते जाओ, लाइक करते जाओ, दुनिया भर की बातें कहते जाओ, लिखते जाओ अपनी अंतरग की कथाएं …प्रंसगें..तूल चूल की बातें …!! घटनाएं, प्रसंग, होनी अनहोनी खोजी खबरी बातें, घर के दिये से लेकर दिल्ली तक की बातें !! भाई बंध की अवाम की बातें, जिल्लत प्रेम की रोमियो-जूलियट टाइप की बातें, भय और विश्वास की सुधिजनों की बातें, लौकिक अलौकिकता की आध्यात्मिक बातें …मन के परतों में छिपी जलीयता की सृजनात्मक कलम की बातें,बुद्धि के कोहों में लगे जमे विचारों की बत्तियों के जलने की बातें, अंतरंगता की लडियों के रेशों को बाहरी जीवन तरंग के रंगों में रंगने की रंगरेजों की बातें…!!
सोने पर सुहागा, उठते बैठते सोते-जागते,बतियाते मुस्कुराते हुवे याने हर पोज़ में फोटो को अपने वाॅल पर चिपकाते जाइए। औरत के अनेक रूपों में फेसबुकी रूप का अलग ही वर्चस्व और अलग ही अंदाज है। हर क्षण हर विचार और हर घटना प्रसंग को फेसबुक के वाल की आँखों से देखने वाली औरत, चित्रों को उसी अंदाज में चुनती है जिस अंदाज में अपने बया की सिलायी के लिये दर्जी पक्षी तिनको को चुगता है । दर्जी पक्षी का बया, उसके अंदाजो हिस्से से खुलता है और बंद भी होता है। कारण औरत का फेसबुकी वाल भी उसके हिसाब से संकोच को ओढती है और ओढी संकुचितता को खोलते जाती है ।
मेरे मुताबिक आदम से भी हव्वा अधिक सोशल है । यानि उसके अंतर्रमन की परतों की गहरायी में जल का लरजना जितना अदृश्य और अध्वनित है, बाह्य जगत के साथ का उसका संबंध , संबंधो की टहनियां ,उन टहनियों में उगे फुनगियों की लाली और हरियाली उतनी ही साक्ष्य है स्फुरित हैं। वह अपने हर भाव और संवेदना की दुनिया को, बाहरी जगत् के रेशों की बुनावट को अपनाते जाती है। अपने सजने संवरने से लेकर , व्यवहार और विचार तक में समाज की प्रतिक्रिया को अत्यंत ही तल्खी के साथ गुनते जाती है और उतनी ही शिद्दत से बाह्य समाज की रंगों अंदाज को अनुभव भी करते जाती है। इसीलिए दुनियादारी या दुनिया के अहसास के कैनवास के कंटेक्सट में औरत मर्द से भी अधिक , अपने केा उकेरते जाती है, स्वयं को ढालते जाती है। इसीलिए श्रंगार के प्रसाधन हो या रंगबिरंगी साजो सामान सभी को औरत अपने मानदंड से चुनती है,अपने लिए, अपनी तुष्टि के लिए, न कि मर्दवादी समाज के निर्णयों के आग्रह से। दुनिया की नजर से अपनी आत्मतुष्टि का परंपरागत हव्वायी स्वभाव फेसबुकी वाल पर अपने को जाहिर करने के इंटरनेट के प्रस्ताव को तपाक से स्वीकारने में औरत को मदत कर रहा है।
जितनी तीव्रता से औरत अपने सौन्दर्य और सौन्दर्यबोध की आत्मतुष्टि की अपेक्षा रखती है उतनी ही उसकी चेतना उसके विचार और संवेदना के लिए समाज द्वारा दिये जाने वाले लाइक के प्रति केन्द्रित होती है। प्रकाशन विचारों का या भावों का या बोधों का जो आत्मिक हो या दैहिक, सृजनात्मकता का आखिरी और अनिवार्य पडाव है । हर कला, जिस तरह कलाकार के रचनात्मक बोध से बाहर पडते जाता है उतनी सहजता से रचनाकार भी उस कला के रूप का बाह्य प्रकाशन चाहता है। समाज द्वारा उसकी पहचान चाहता है। प्रकाशन की खुशी अद्भुत होती है, मन के कोने का बडी ही आत्मीयता से सहेजने वाला बोध, एक अदृश्य विश्वास से भेदने वाला बोध, अपनी अस्मिता की पहचान की अद्वितीय आनंद से उद्बोधित कर देनेवाला बोध। बस लाइक् का एक क्लिक , और उसमें भी अपेक्षित या अनपेक्षित उंगलियों से क्लिक किया गया लाइक … । फेसबुक पर का यह सृजनात्मक या कलात्मक अभिव्यक्ति से औरत को मिलने वाला लाइक, जामे जमशेद नही तो और क्या है ?
फेसबुक का माध्यम औरत के लिए जितना घर के आंगन में रंगोली काढने जितना सरल है और सहज भी है लेकिन आंगन में कढे रंगोली का स्पर्श नहीं दे पाता वह सत्य का आभास मात्र है। आभासी दुनिया की अपनी सीमाएं और बंदिशें इस लोक के साथ भी जुडे हुए हैं । लेकिन समाज में जहां मनुष्य रहते हैं, जिनमें आपसी संपर्क के रूप में जब इंटरनेट का माध्यम जबरदस्त माध्यम के रूप में स्थायी रूप में स्थापित हो रहा हो, वहां आभास के भास होनें में समय नहीं लगेगा। झूठ माने जाने वाली प्रक्रिया धीरे -धीरे सच में बदलने के सोशल प्रोसेस में ढलते हुवे स्थापित हो जाती है। इसीलिए आज इस आभासी दुनिया के सोसियलाइजेशन में औरत अपनी अस्मिता के अनेक आयामों को तलाश रही है । टीन ऐज से लेकर वृद्धा तक अपनी जिजिविषा के लौ में फेसबुक वाल पर अपना हस्ताक्षर दर्ज कर रही है । परिवार से लेकर समाज, समाज से लेकर संस्कृति, संस्कृति से लेकर राजनीति, राजनीति से लेकर धर्म, शिक्षा विज्ञान चिंतन विमर्श माध्यम जैसे अनेक डोमेन में आज औरत ने अपनी अलग अंगीठी सुलगा कर रक्खी है। औरत का बोल्ड और सुलझा हुआ व्यक्तित्व , सोच और विमर्श का गंभीरता और निर्णयों का ठहराव और ठोसपन से लेकर कलात्मकता और सृजन की बारीक नक्काशियों को भी उकेरने की कला उसके ई- लेखन में जाहिर हो रहा है ।
केवल दिवार ही नहीं है सामने या सिर्फ लाइक बटोरने का झोला ही नहीं, साथ ही उसके हाथ दमदार हथियार भी लगे हैं। अनचाहे विचार या व्यक्ति को उसकी मानसिकता एवं भावों को, ना की तर्जनी दिखाने की संभावना और साथ ही अनसुलझे असामाजिक तत्वों को पूरी तरह ब्लाक कर अपना स्वतंत्र सोच और वैचारिक स्वछंदता केा स्टैंड करने की। आरंभ की दुविधाएं और असहजताएं मिटकर एक आरोग्यपूर्ण अभिव्यक्ति माध्यम के रूप में वह ई-जाल को प्रयोग में जब ला रही है तब विसंगतियां और अश्लीलता अपने आप झडकर शुद्ध निर्मल जल ऐसा जाम में भरते जा रहा हैकि उसमें अपना मुख स्वयं देखे और दिखाये ।
औरत के लिये सोशल मीडिया हाथ की दूरी पर हथेली में समा जानेवाली सहज और सरल अभिव्यक्ति की मीडिया है, जो हंडी की उबाल मात्र से दाल और चावल के पकने या न पकने का अहसास जरूर देता है। कुकर की सीटी के प्रेशर की तरह भावनाओं की तीव्रता और उसके विरेचना के सुख का अहसास भी उसके लिए एक तरह का साइकोलाजिकल सूदिंग ही समझिए। यह तो सर्वविदित समाजिक दर्शन है कि मनुष्य उसी जमीन और जगह में जडे जमा सकता है या बडी सहजता से मुक्ति का श्वास ले सकता है जहा, यानी जिस परिसर में उसकी पहचान हो या उसकी अपनी आइडेंटिटी हो। आज के दौर में औरत को चाहे इस दायरे की सीमा कुछ भी क्यों न हो, सोशल मीडिया एक ढंग से उसकी अस्मिता को पाने हेतु सृजनात्मकता के आनंद का स्पेस प्रदान कर रहा है।
लेख, कथा, रिपेार्ट आदियों के छपने की काल सीमा जहां मासिक या साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं ने छोटा कर दिया तो फेसबुक ने उस अवधि को और भी घटाकर क्षण में लाकर धर दिया। अब बैठकर लिखा या लिखे हुए को फेसबुक वाल पर चढाने की देरी, पाठकों के हथेली में खुलते जाते हैं लेखन के राज , कथा के रहस्य या घटनाओं के हलचल । और तो और साथ में चस्पाएं चित्र इतने पूरक और आकर्षक होते हैं, जैसे फेसबुक के रीडर के साथ बयानबाजी कर रहे हो। यह जाहिर बात है कि औरत अधिक कलात्मकता रखती है अपनी सोच में और अभिव्यक्ति में। सौन्दर्यबोध और सुंदर संवेदना, उसका भावनालोक और उस भावनालोक के सामाजिक दायरे के भीतर की प्रस्तुति को अधिक आकर्षक और कलापूर्ण बनाता है। फेसबुक के पोस्ट औरत की सौन्दर्य चेतना से लबालब होते हैं। अव्वल दर्जे का महिला लेखन से लेकर चौका चूल्हा संभालनेवाली गृहणी के पोस्ट भी अपने अपने एस्थटिक के स्तर के आधार से, पूरक चित्र और रंगों से सजे पूजा मंडप की तरह लगते हैं। जीवन और समाज में सौन्दर्य ही एक ऐसा बोध है, जिसका कोई स्तर नहीं होता।
परंपरागत मुख्यधारा के साहित्य ने औरत के रचना संसार को नजरअंदाज किया- नून, तेल,साग सब्जी का साहित्य मानकर उसे चारदिवारी के बीच का साहित्य कहकर उसका लेबल किया। महिला साहित्य का उल्लेख केवल नाम के वास्ते (गिनती में बस, खेल में नहीं) की रस्म अदायगी को समीक्षक और इतिहासकार निभाते आये हैं, वहीं शास्त्रीय और परंपरागत साहित्य की इस मानसिकता को लेखिकाओं ने चुनौती दी। महिला लेखनको मानते-मनवाते आज इक्कीसवी सदी में हाशिये से साहित्य के केंद्र में महिला की कलम आ गई है। वहीं सोशल मीडिया में औरतों का हस्तक्षेप पुरूष लेखन के दखल से भी दस प्रतिशत अधिक अपनी प्रतिभागिता को स्वयं की सृजनात्मकता और सौन्दर्यबोध के माध्यम से साबित कर रही है । फेसबुक के लिंक के माध्यम से पाठकों को बडी सहजता से उनकी उॅुंगली थामें अपने रचना संसार में प्रवेश करवाती हैं और साहित्य आस्वादन के अपने कैनवास को परत दर पतर खोलते जाती है । दैहिक-अनुभव से आत्मिक आनंद की ओर, इश्के लौकिकी से इश्के अलौकिकी की ओर …!! बस और कुछ नही तो, साहित्यिक लेखन के चारपायी पर बैठकर अपनी रचनात्मक स्थापनाओं को देखने की या दिखाने का भाग मिले या न मिले, लेकिन दस -बीस लाइक में ही सही अपने आप को अवाम में आम न मानने की आत्मिक आभास से तो फूले न समाने का गुबारा तो हाथ में पकडा दिया है फेस बुक ने औरतों के हाथों में। हाथ के इस फुग्गे को फोडने या फुलाने की स्वतंत्रता उसके हथेली की लकीरों में बंधी हुई है ।
औरतों का फेसबुकी डोमेन में आदमियों से भी दस प्रतिशत अधिक संख्या में भाग लेना सचमुच में एक आरोग्यपूर्ण पहल है। आनंद, शांति, सुख सुहाग की डोली चढकर आई या चढने के भावों से सजी संजोयी औरत आभासी दुनिया को अपने घर आंगन के जनानी बैठकों का टच देती है। उसका आंगन उसका अपना है। वह स्वतंत्र है कि वहां तुलसी का बिरवा सजाये या बंगडी, साडी बर्तन भांडों का, पास पडोसियों से मिलकर खरीद-फरोख्त करे या उस आंगन के फैलाव में अपनी चारपाई लगाकर आस पडोसियों से संगे संबंधियों से गप्प लडाये और अपनी चौपायी खुद सजाये। हमारी आभासी दुनिया में औरतों की और भी अनेक ऐसी चैपाइयां हैं जो औरों से भी कुछ अधिक बेदखली, बेहिसाबी स्वतंत्रता और स्वछंदता रखती हैं। कारण औरतों के वाल के उतने ही नमूने मिलेंगे, जितनी उनकी अस्मिता-एक से एक सुंदर, एक से एक बेबाक, एक से एक कलात्मक और एक से एक विश्वसनीय…सौन्दर्य और विचार की चेतना के जगर- मगर धुति से भरपूर।
आज , औरत को लेकर उसके संबंधों को लेकर उसकी अस्मिता को लेकर परंपरा से चली आ रहे,बने बनाये मिथक प्रतिमान और संकेत टूट रहे हैं। उसका अपना घर के कोने में आज सारा विश्व समाये जा रहा है। तकनीक की सूक्ष्मताओं और प्रयोग की जागरूकता से वाकिफ औरत ने आज आभासी दुनिया को अपने हथेली में कैदकर लिया है । वुमन फ्रेंडली तकनिकी और साइबर माध्यम आज उसके लिये वह जाम है जिसे जब चाहे खोल सकती है और जब चाहे उसमें झांक सकती है। और अंत में कहूं तो , मिस्कीन शाह के तर्ज में जमशेद के जाम को आभासी दुनिया मानकर आज यह कहने में ही उसकी सच्चाई है –
है मुझको ऐ जमशेद तेरे जाम से भी काम
जहां-नुमा है मुझे अपने खुश-खिराम से भी काम ।
– मिस्कीन शाह
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