आज हम बाजारवाद की कितनी भी आलोचना कर लें किंतु एक कटु सत्य यह भी है की उसी बाजार ने हम लोंगो की जीवन शैली पर पूर्ण नियंत्रण कर लिया है उसी बाज़ारवाद में बचपन फल फूल रहा है कैसा बचपन जिसमें शीला ,मुन्नि और भी कितने ऐसे लड़कियों के नाम है जो प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों रूप से बचपन के उस कोमल दिमाग में ऐसा बीजा रोपण कर रहे हैं जो महिलाओं के प्रति एक नकारात्मकता को जन्म दे रहा है जो बड़ा होकर किसी ना किसी रूप में एक मनोविकार को जन्म दे रहा है इसलिये जब उस व्यवस्था से लड़ना है तो बीज को ही ऐसा पानी दिया जाय तो पौधा अपने आप ही बढ़िया निकलेगा और वो भी स्वाभाविक ढंग से उच्च शिक्षा में आकर व्याख्यान ,कार्यशाला आदि महज़ औपचारिकता रह जाते है कोई परिवर्तन नहीं उन कस्बों में उन गाँवों में विमर्श की ज़रुरत है जहाँ ज्ञान सृजन की परंपरा में ही वो स्थापित है जिसमे कई सपने बनने से पहले ही टूट रहे हैं.
क्योंकि कोई भी हो उसके जीवन में ज्ञान अर्जन करने की प्रक्रिया , ज्ञान का संचयन करने का बहुत असर पड़ता है अगर बचपन से उसको इस प्रकार से ढाला जाय कि उसे जेंडर की समझ हो जाय तो उसकी मानसिकता उसी तरह विकसित होगी जिस विकसित मानसिकता की बात उच्च शिक्षा में की जाती है इंसान को इस बात का पता रहेगा तो निश्चित रूप से वो जागरूक रहेगा भी आज जहाँ लोग घर जाते ही मम्मी चाय ले आओ ,भाभी कपड़े धो दो जैसे आदेशात्मक शब्दों का प्रयोग बड़े सहज ढंग से करते हैं अगर बचपन से वो इन सब बातों को जान जाएगा तो शायद वह ये सारी बातें नहीं बोलेगा इसलिए मुझे लगता है ऐसे चिंतन प्राथमिक शिक्षा में होने चाहिए .प्राथमिक शिक्षा में उसके जानने की तीव्र इच्छा होती है वह अगल बगल के माहौल को बहुत तेज़ी से ग्रहण करता है हर बात को बड़े ध्यान से सुनने व् समझने की कोशिश करता है वहीँ से व्यक्ति में धारणाएं बनना प्रारंभ होती वहीँ से वो दुनिया को समझने का प्रयास करता है वो ऐसी बातें जब शिक्षा के माध्यम से जल्दी से सीख लेगा और किशोर होते होते इन सब बातों को आत्मसात करने लगेगा छोटी छोटी ऐसी कहानियाँ ऐसे खेल जो समानता को बढ़ावा देते हैं ,को प्राथमिक शिक्षा में लागू करें मेरे विचारों से बहुत कारगर होंग जब बचपन से किसी को भी यह सुना जायेगा कि लड़कियों की तरह क्यों रो रहे हो ,लड़की पराया धन होती है ये सारी बातें छोटे से दिमाग में जम जाती हैं अगर इसकी जगह अपनी प्यारी सी संतान को ये सिखाया जाय की हर वो इंसान जो मेहनत करेगा परिश्रम करता है परिस्थितियों से लड़ता है वो मजबूत होगा इसमें किसी जेंडर का ज़िम्मेदारी ज़रूरी नहीं है तो इंसान की समझ पहले से ही काफी परिपक्व हो जायेगी हाँ इस बात का ध्यान रखना आवश्यक होना चाहिए कि एक बच्चे के अनुसार किसी नाटक के माध्यम से किसी छोटी फिल्म के माध्यम से किसी छोटे से खेल के माध्यम से खेल खेल में बच्चा बहुत बड़ी बातें प्यार और आराम से सीख लेगा और खासकर गाँवो में जहाँ बहुत ज़रुरत है कस्बों में जहाँ लोगों को जागरूक करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता है धीरे धीरे जागरूकता का अभियान चलाया जाना चाहिए चितंन के स्थान और उसके स्तर को व्यापक करने की आवश्यक है तभी सामजिक परिवर्तन की गति तेज़ हो पायेगी।
तभी उस समानता वाले समाज की प्रक्रिया आगे बढ़ पायेगी जिसका सपना वातानुकूलित कमरों में बैठे बुद्धजीवी देख रहे हैं
दक्षम द्विवेदी
शोधार्थी म गा अ हि वि वि वर्धा
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