अखिलेश्वर पांडेय की कविताएं

अखिलेश्वर पांडेय

‘पानी उदास है’ कविता संग्रह प्रकाशित.एनएफआई का फेलोशिप और नेशनल मीडिया अवार्ड., प्रभात खबर में कार्यरत. संपर्क:apandey833@gmail.com
मोबाइल : 8102397081

पतरा


परदेस जाने से पहले
गांव में अब दिखाते हैं पतरा
दिशाशूल का भरम मिटाने को
पंडित जी की सलाह जरूरी है
पतरा में सब लिखा होता है
कब होगी बारिश
कब डालना है खेत में बीज
कब होगा दुल्हन का गवना
मुनिया के स्कूल जाने का सु-दिन
पेट का अजन्मा बेटा है या बेटी
110 वर्षीय दद्दा के मरने का दिन भी

गाय का पहला दूध
खेत का पहला अन्न
बेटे की पहली कमाई का दशांश
दे आता है यजमान घर पर
पुरोहित जी उचारते हैं भविष्य
बांचते हैं हस्तरेखा
बताते हैं –
यह साल अच्छा नहीं तुम्हारा
हर शनिवार पीपल में जल दो
जलाओ घी का दीया
करो हनुमत आराधना
पहनो लाल वस्त्र
तब मिलेगी क्लेश से मुक्ति

यह सब सुन
चकरा गया
भकोलवा का दिमाग
बोल पड़ा –
सब हमही करेंगे तो
आप का करियेगा…?

मेरे गांव में


हौंसले की झाड़ू से दुख बुहारती है मां
मुश्किलों की मोतियाबिंद से
कमजोर हो गयी हैं आंखे उसकी
फिर भी –
भूत-भविष्य-वर्तमान
बहुत साफ-साफ दिखता है उसे!

बचपन की भौजाइयां
असमय बूढ़ी हो गयी हैं
जिम्मेवारियों की बोझ ने
छिन ली है उनकी खूबसूरती
हंसी-मजाक की जगह ले ली है
नाती-पोतों ने!

शाम होते ही कई घरों से
छनकर आने लगी टीवी की आवाज
स्टार प्लस देख रहे बच्चे और बूढ़े
कैडबरी और मैनफोर्स का विज्ञापन आते ही
छोटी बहू ने बदल दिया चैनल
अब शाहरुख के आगे नाच रही सन्नी लियोनी
गा रही गाना –
लैला ओ लैला!

लल्लन बाबू का छोटका स्साला
गबरू जवान हो गया है
छेड़ता है लड़कियों को राह चलते
मैंने पूछा उससे
क्यूं भई! क्या चल रहा है
बोला-
पुलिस में जाने की तैयारी कर रहा हूं!

पढ़ा था जिस जर्जर स्कूल में मैं
अब वह आलीशान बन गया है
कई कमरे, रंग रोगन, चारदिवारी
सबकुछ एकदम चकाचक
बस
मास्साब की जगह बच्चों ने ले ली है
अब बच्चे ही पढ़ाते हैं बच्चों को!

आम का लंगड़ा पेड़
अब भी खड़ा है यूं ही तन कर
इस बार आये हैं खूब मंजर
रामदीन काका कह रहे थे-
अब भी वैसी है मिठास उसमें
तो फिर
आसपास के बाकी पेड़ कहां गये!

चिड़िया



चिड़िया हरती है
आकाश का दुख
उसके आंगन में चहचहाकर
भर देती है संगीत
सूने मन में

बादलों को चूमकर
हर लेती है सूरज का ताप
बारिश होने पर
तृप्त होती है चिड़िया

सुस्त पड़ते ही सूरज के
लौट आती है घोसले में
चोंच में दाने भरकर
खिलाती है बच्चों को
सिखाती है बहेलियों से बचने का हूनर
पढ़ाती है सबक
पंख से ज्यादा जरूरी है हौसला

चिड़िया प्रेम करती है पेड़-पौधों से
करती है प्रार्थना – न हो कभी दावानल
सलामत रहे जंगल
बचा रहे उसका मायका
वह जानती है
उड़ान चाहे जितनी लंबी हो
लौटना पेड़ पर ही है
इसका बचे रहना जरूरी है
मां-बाप की तरह.

अकारण


धूप की चौहद्दी नहीं देखी जाती
हवा का रास्ता नहीं पूछा जाता
कोई आ जाये जो घर पर बेवक्त
तो कारण नहीं पूछते
मौत दे दे दस्तक अचानक
तो वक्त नहीं पूछते उससे
बच्चों की खिलखिलाहट का रहस्य
क्यों पूछना भला!
कैसे जाना जा सकता है
फूलों का रंग रहस्य
भात के अदहन का तापमान
थर्मामीटर से नापता है कोई भला!

यह द्वापर नहीं
कलियुग है साहब!
निशाना साधिये
मछली की आंख मत देखिये
प्रेम में ऊंच-नीच
राजनीति में सही-गलत
इस सब चक्कर में
क्यों पड़ते हैं…?

छोटे कपड़े पहनने वालों का कद भी
बड़ा होता है
बड़ी-बड़ी बातें छोटे लोग भी कर सकते हैं
उम्र, अनुभव और उपलब्धियों का
लेखा-जोखा रखना फिजूल है.

औरत होना कला है


महावर से छुपाना बिवाई
सस्ता सा पाउडर पोतकर
ढंक लेना आंखो के नीचे का कालापन
चलताऊ किस्म के क्रीम से
बचाना गालों की लाली
यह सब उपक्रम आसान नहीं
ना ही आसान है औरत होना

रोपित इच्छाओं की पेड़ की तरह
करते रहना फल-फूल की बारिश
जरूरतमंद घरवालों को देते रहना
ससमय
मुस्कान व खुशियों का तोहफा
क्या इतना आसान है!

हां है आसान
एक औरत के लिए
यह सब सहज और सरल भी
क्योंकि
यह सब नहीं करता पुरुष
इसलिए करना ही पड़ता है
हर औरत को
इसलिए आसान है

अहिल्या, सीता, राधा, रुक्मिणी
मेनका, रंभा से लेकर देविकारानी से आलिया तक
इतने रुपों में भी
कहां पहचान पाया कोई पुरुष उसे
मां ,बेटी, बहन, दोस्त, प्रेमिका और पत्नी तक
कितने कम नाम और पद हैं इस दुनिया में औरत के लिए
पर जिम्मेवारियां कम नहीं!

रुदाली से रुपाली तक
हर भूमिका में फिट है वह
हर मोरचे पर डटी है
दीपमाला में जलती
शोरूम के काउंटर पर मुस्कराती
अबोध बच्चे को कराती स्तनपान
गांव पोखर में नहाती
खेतों में गेहूं की बालियां समेटती
किचेन में सोंधी रोटी बनाती हुई
हर जगह…

औरत  होना अभिशाप नहीं
एक कला है
यह जान जाती है हर लड़की
पैदा होते ही.

ऐसी जगह

तुम्हारे छतनार जुड़े में टंकना चाहता हूं
टहकार पलास का ऐसा फूल
जो मुरझाये नहीं कभी
हमारे प्यार की तरह
महुए सी मादक तुम्हारी आंखों में
लगाना चाहता हूं रात का काजल
मैं तुमसे प्यार करना चाहता हूं उतना
जितना नदी मछली से करती है
हवा खूशबू से
ओस दूब से
और
भूख अन्न से

चिड़िया की बची हुई नींद
घड़ी से थोड़ा सा ज्यादा वक्त
बारिश से उसका सूखापन
और
राख से नमी मांग कर
निकल पड़ेंगे हम सैर पर
एक ऐसी दुनिया में
जहां
जिया जा सके अपनी शर्त पर
आदर्श या आडंबर के बिना
शहरी बनने की ढोंग किये बगैर
बिना छिपाये अपना गंवईपन
जहां सूरज के निकलने की शर्त
पूरब न हो
ना हो चांद के होने की शर्त
आसमान
देवता मंदिर के बाहर भी
बिराजते हों
ऐसी जगह चलेंगे हम
जहां रोशनी को अंधेरा मिटाने का
गुमान न हो
न फूलने-फलने पर इतराते हों पेड़
जहां गेहूं और गुलाब की खेतें
ना हों अलग-अलग
ऐसी जगह ढूंढेंगे हम

फिर देखना तुम
तब डरेगा नहीं कोई प्रेमी
ताकतवर मुस्कानों से
बीज अंकुरित होंगे
बिना प्रार्थना के
प्रेमियों को नहीं करना होगा
बसंत का इंतजार
लगानी नहीं पड़ेगी ‘प्रेम दिवस’ की होर्डिंग्स
खत्म हो चुका होगा भय का कारोबार.

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