नाम अम्बेडकर विश्वविद्यालय, काम दलितों की उपेक्षा

दलित शोधार्थी गरिमा एवं रश्मि द्वारा लिखा गया

प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC) द्वारा किये गए प्रदर्शन के दौरान यह एक बार फिर सिद्ध हो गया कि ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली (AUD) के खाने के दांत कुछ हैं, और दिखाने के कुछ और हैं. अम्बेडकर यूनिवर्सिटी, दिल्ली (AUD) दिल्ली राज्य सरकार द्वारा आर्थिक सहायता प्राप्त एक सरकारी यूनिवर्सिटी है, जिसमे 85% सीटें दिल्ली के नागरिकों के लिए आरक्षित हैं. शुक्रवार, 24 मार्च, 2017 को अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC), जो कि हाशियागत समाज से आ रहे विधार्थियो का एक फ्रंट है,  ने कुलपति के दफ्तर के बाहर विरोध-प्रदर्शन किया, जिसकी कई मांगें थीं, जैसे कि एमए, एमफिल तथा पीएचडी की प्रवेश परीक्षा के प्रश्नपत्र अंग्रेज़ी के साथ ही साथ कम से कम दिल्ली की अन्य राज्य स्तरीय भाषाओँ (पंजाबी, हिंदी तथा उर्दू) में भी छापे जाएँ, अंग्रेजी सुधार के लिए लैंग्वेज सेल का गठन (जोकि अभी सिर्फ कागज़ों तक ही सीमित है) दो स्तरों पर किया जाए, पहला, बुनियादी अंग्रेजी भाषा को सिखाने के स्तर पर, तथा दूसरा अकादमिक अंग्रेज़ी के सुधार और सिखाने के स्तर पर, इस लैंग्वेज सेल को हर विभाग/स्कूल के स्तर पर लागू किया जाए जैसे कि हर विभाग/स्कूल के पास अपने अंग्रेजी भाषा प्रशिक्षक हों, यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान के सभी अनुशासनों के सेमिनार इत्यादि गैर-अंग्रेज़ी भाषा में भी हों (अभी के समय में लगभग 99% लेक्चर और सेमिनार केवल अंग्रेज़ी भाषा में ही होते हैं), अनुवाद सेल का गठन किया जाए और जब तक किसी छात्र को यूनिवर्सिटी का लैंग्वेज सेल कम से कम बुनियादी अंग्रेज़ी नहीं सीखा पाता तब तक उस छात्र को उसकी भाषा में असाइनमेंट, परीक्षा, शोध-प्रबंध और थीसिस लिखने दिया जाए (अभी के लिए दिल्ली की राज्य स्तरीय भाषाओँ में: हिंदी, उर्दू तथा पंजाबी). प्रगतिशील एवं लोकतान्त्रिक छात्र समुदाय (PDSC) ने कुछ इन्ही मांगों के साथ अपना मांग-पत्र (डिमांड चार्टर) कुलपति को एक प्रक्रियात्मक (Procedural) तरीके से 20 फ़रवरी, 2017 को भेजा था. जिसमे हमने इन सभी मुद्दों पर उनकी ठोस राय मांगी थी. इसके करीब एक महीने बाद भी उन्होंने कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा है.

यह प्रदर्शन हाशिए के समाज से आ रहे छात्रों की आवाज़ था, जिसकी उपेक्षा और तिरस्कार जी ने यह कह कर किया  कि “हम उनके खिलाफ मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे”. इसके बाद भी जब हमने उनसे मिलने का आग्रह किया तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि वह केवल निर्वाचित स्टूडेंट कौसिल (Elected Student Council) से ही मिलेंगे और उनके माध्यम से ही वह इस मुद्दे पर बात करेंगे. हम कुलपति से पूछना चाहते हैं कि क्या आपको PDSC द्वारा AUD परिसर में 410 छात्रों के बीच किये गये सर्वे की रिपोर्ट दिखाई नहीं देती? क्या आपको यूनिवर्सिटी में दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदाय का ड्राप-आउट रेट दिखाई नहीं देता? पिछले 5 सालों से कैंपस में उठ रहे भाषाई भेदभाव के मुद्दे पर छात्र आपको एम्पिरिकल (empirical) रिसर्च करके दिखा रहे हैं कि भाषा की बुनियाद पर किस तरह भेदभाव आपकी यूनिवर्सिटी में होता है, इससे आपको कोई फर्क नहीं पड़ता? कि आप अपने कीमती समय में से कुछ समय हमको दे पाए? और आप हमारे इस मुद्दे को यह कह कर टाल दे रहें हैं कि केवल निर्वाचित स्टूडेंट कौंसिल (जोकि पिछले साल ही बनी है और खुद अपने अस्तित्व को तलाश रही है) ही इस मुद्दे को कहे.

यह वही यूनिवर्सिटी है जो हर साल इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (IIC) में अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर करवाती है. यह वही यूनिवर्सिटी है जिसने इसी साल फ़रवरी में दलित पंजाबी गायिका, गिन्नी माही का शो भी करवाया था. यह वही यूनिवर्सिटी है जहाँ दलितों, बहुजनों तथा आदिवासियों के नाम पर कलेक्टिव भी है जो खुद को यूनिवर्सिटी के दलित, बहुजन तथा आदिवासी तबके के “एकमात्र प्रतिनिधि” के बतौर पेश भी करता आया है. यह हमारे लिए बहुत ही निराशाजनक बात है कि न तो AUD का ज़्यादातर संपन्न तबका जोकि, अम्बेडकर, मार्क्स, स्पिवाक, बटलर, फूको और ऐसे ही तमाम फिलोस्फर को इस्तेमाल कर दमित अस्मिता को अपना विषय बनाकर उन पर लिखता रहा है, बतियाता रहा है, (अपनी अकादमिक और राजनीतिक दुकान चलाता रहा है), मिसाल के तौर पर, अभी हालिया दौर में CPSH में हुए इलेक्शन में भी कई उम्मीदवारों ने भाषा के मुद्दे की संवेदनशीलता को अपने चुनावी मेनिफेस्टो में पहचाना. यह एक सराहनीय बात है कि उन्होंने इसे पहचाना. लेकिन सवाल यह है कि क्यों हम और हमारा मुद्दा, मात्र चुनावी मेनिफेस्टो तक ही सीमित है? यह हमारे लिए बहुत ही हैरानी और निराशाजनक बात है कि यहाँ तक कि वह कलेक्टिव जोकि फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर जातिगत भेदभाव पर बातें करते हैं, जातिगत भेदभाव के खिलाफ पॉलिटिक्स करते हैं, दलित, ओबीसी तथा आदिवासी समुदाय की एकता के नारे लगाते हैं उन्होंने क्यों हमारे इस मुद्दे पर हमारे साथ खड़े होना ज़रूरी नहीं समझा? सवाल यह भी है कि क्या आपकी पॉलिटिक्स का रिश्ता कैंपस के “दूसरे” दलित और बहुजन के मुद्दों से है? यह उनकी पॉलिटिक्स पर एक प्रश्नचिन्ह है या हम जैसे दलित-ओबीसी छात्रों के सामाजिक-आर्थिक अस्तित्व पर एक प्रश्नचिन्ह? या फिर यह विचारधाराओं के संघर्ष में एक नए तरह का जातिगत और जातियों के भीतर ही एक आर्थिक भेदभाव है?

तो अंतत: साथियों ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी में अम्बेडकर के बारे में अकादमिक चर्चाएँ और अम्बेडकर को ज़रूर याद किया जाएगा लेकिन सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में. अम्बेडकर की एक बड़ी तस्वीर कुलपति जी के दफ्तर में और यूनिवर्सिटी में ज़रूर लगेगी लेकिन दलित, ओबीसी, आदिवासी और गरीब-वंचित समुदाय के लोग कैंपस तक आ पायेंगे, यहाँ सर्वाइव कर पायेंगे यह मुद्दा नहीं है. अगर आ भी जायेंगे तो उनको अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व के कारण ग्रेड कम मिले, उनको रिपीट करना पड़े या वह यह यूनिवर्सिटी छोड़ कर चले जाएँ इन सब मुद्दों से उन्हें कोई वास्ता नहीं. क्योंकि बाबा साहेब “जिन्दा” हैं, कुलपति की यूनिवर्सिटी की तस्वीरों में कुलपति  की यूनिवर्सिटी की अंग्रेजीवादी अकादमिक चर्चाओं में. बाकी जिन समुदाय के उत्थान के लिए बाबा साहेब ने संघर्ष चलाया उस समुदाय के लोग इस कैंपस में ‘जिंदा’ हैं इससे कुलपति का कोई नाता नहीं. जिन समुदायों को बाबा साहेब ने शिक्षित हो, संघर्ष करो, संगठित हो का नारा दिया था, उनके शिक्षित होने, संघर्ष करने और संगठित होकर कुलपति से मिलने पर कुलपति का इगोइस्टिक ब्राह्मणवादी रवैया कहता है कि “मैं सिर्फ निर्वाचित ‘स्टूडेंट कौंसिल’ से मिलूंगा”. तो साथियों, ‘हमारी’ यूनिवर्सिटी मानती है कि जातिगत भेदभाव होता है लेकिन केवल ‘हमारी’ अम्बेडकर यूनिवर्सिटी के ‘बाहर’ इसलिए ‘जागरूकता’ फैलाना ज़रूरी है लेकिन केवल यूनिवर्सिटी के ‘बाहर’. इसीलिए ही दलित पंजाबी गायिका गिन्नी माही जी का शो कराया जाता है, हर साल अम्बेडकर मेमोरियल लेक्चर कराया जाता है.

नोट: सुझाव तथा राय के लिए हमे नीचे लिखी ईमेल आईडी पर सम्पर्क कर सकते हैं. garima.16@stu.aud.ac.in, rbala.16@stu.aud.ac.in

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