असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता, संपर्क:munnigupta1979@gmail.com
कैनवास रंग और जीवन
समन्दर ने
चिड़िया की हथेली में
तूलिका थमा दी.
और,
गहरे विश्वास से कहा,
रचो,
अपने भीतर के आकाश को,
अपने मन के कैनवास पर.
झांको,
अपने भीतर की अतल गहराई में
औ’ उतरो गहरे, भीतर और गहरे.
खींच लाओ उस रंग को,
जो तुम्हारी तूलिका पर चढ़ जाए.
कैनवास पर रचा जा चुका था
एक जीवन.
चिड़िया प्रेम में हीर होना चाहती है
चिड़िया,
प्रेम में हीर होना चाहती है
दीवानगी में लैला
जुनूँ में सस्सी होना चाहती है
हौसले में साहिबा.
चिड़िया प्रेम में हीर होना चाहती है
लेकिन
समंदर प्रेम में
सिकंदर होना चाहता है
समन्दर की परवाज़ औ’ चिड़िया का पाठ
चिड़िया समंदर से कहती है
तुम अपनी ख्वाहिशों में
आसमान होना क्यूँ चाहते हो?
सब कुछ का अस्तित्व तहस-नहस कर
क्यूँ ,
क्यूँ,
चिड़िया के पंखों पे सवार होकर
दूर देश की यात्रा पर निकलना
चाहते हो.
समन्दर, ये तुम्हारा स्वभाव नहीं.
चाहत विस्तार देता है
औ’ संघर्ष ताकत.
तुम कब से,
अपने स्वभाव के विपरीत चलने लगे?
मैंने तो तुम्हें,
‘विनाश’ में नहीं ‘सृजन’ में देखा है
‘एकांतवास’में नहीं,
‘सहजीवन’में देखा है.
समंदर का तिलिस्म औ’चिड़िया की परवाज़
चिड़िया कहती है
समंदर तुम्हारा तिलिस्म तो बहुत बड़ा है
तुम सारा खेल रचते हो
सारी कायनात, अपने में बिखेर लेते हो
लेकिन,
मैं तिलिस्म में नहीं
जीवन में विश्वास करती हूँ
न तो मैं चमकीली रेत पर बैठकर
तुम्हारे लिए शान्ति-गीत गा सकती हूँ
न ही तुम्हारी लहरों पर एक अनंत यात्रा के
ख़्वाब देखती हूँ
और न ही,
समंदर और आसमान के बीच
त्रिशंकु की तरह
फंसी रह सकती हूँ
मुझे अपनी मंजिल का पता नहीं
मगर ये जानती हूँ,
जीवन को जीवन से काटकर
अपने पंखों पर समेटकर
तुम्हें ले नहीं जा सकती.
क्योंकि,
जीवन में मेरा भरोसा गहरा है
मैं इसके खिलाफ कैसे हो जाऊं?
तुम्हारे लिए,
तुम्हारी मछली, तुम्हारी रेत,
तुम्हारी वनस्पतियाँ, तल में असंख्य जीव-जन्तु,
उन सबका क्या?
जीवन में,
चिड़िया का गहरा विश्वास
तिलिस्म के विरुद्ध है.
प्रेतछाया और रोटी का सवाल-एक
गोलमेज कांफ्रेंस लग चुकी है
प्रेतछाया के महल में
डायन और उसके अनुचर
मछली और समुद्री काली मछलियाँ
शामिल हैं सभी
प्रेतछाया के माया महल में
उसकी माया औ’ किस्से में
चिड़िया, बित्ते भर चिड़िया ने
मौसम में
आग लगा रखी है
चिड़िया कहती है –
प्रेतछाया को रोटी से बहुत प्यार है
घी चुपड़ी रोटी, लकड़ी के कंडे वाली
आग में पकी रोटी
चिड़िया ने खिलायी थीं उसे
गोल, ताज़ी, गर्मागर्म रोटियाँ
चिड़िया अपने सपने
जला-जलाकर बनाती थी रोटियाँ
उस आग में सपने भी
होम करती थी
पर क्षुधा शांत करती थी
प्रेतछाया की
आज रोटी पर बहस छिड़ी है
प्रेतछाया की रोटी पर
प्रेतछाया कहती है बड़े अभिमान से
मेरे महल में गुलामों की कमी नहीं है
मेरे इशारे पर सब कुछ करते हैं मेरे गुलाम
और बित्तीभर चिड़िया का दुस्साहस
कि मुझे मेरे ही साम्राज्य में बदनाम करे
ये आपातकालीन बैठक रोटी पर है
रोटी पर बहस छिड़ी है
किसने बनाई? कब बनाई?
कहा बनाई ? कैसे बनाई ?
कैसे खिलाई ?
प्रेतछाया और रोटी का सवाल-दो
जब पूरा राज्य रोटी के लिए हाहाकार कर रहा है
आश्चर्य है – प्रेतछाया के किस्से में
अपनी रोटी की खातिर
आपातकालीन बैठक !
रोटी के लिए क्रान्ति-गीत लिखते देखा
रोटी के लिए क्रान्ति-भाषण देते देखा
रोटी के लिए साम्यवाद की गुहार लगाई
रोटी के लिए सर्वहारा की पुकार लगाई
रोटी के प्रश्न पर ही
साम्राज्य की सिरमौर बनी
पर देखिये अपने गुलामों की रोटी पर ही
आँखें जमाए रखीं
आँखें चुराकर ही
मजलूम थालियों की रोटियाँ गिनती
एक नजर से
गुलामों की पांत का जायजा लेती
रोटी चुगती चिड़िया पर भी नजर रहती
कितना खाया? कब कब ?
और कितनी कितनी बार खाया ?
रोटी का प्रश्न
सिर्फ जबान पर ही था प्रेतछाया के
उसकी जिह्वा सिर्फ
अपनी रोटी की ही बात ‘जानती है
वह सिर्फ अपनी ही रोटी का स्वाद
पहचानती है
रोटी का प्रश्न
राज्य की रोटी का प्रश्न
सिर्फ प्रश्न था
प्रेतछाया के मायालोक में.
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