वेश्यालय में किस्म-किस्म के लोग आते हैं: विदुषी पतिता की आत्मकथा

कुमारी (श्रीमती) मानदा देवी 
अनुवाद और सम्पादन: मुन्नी गुप्ता

1929 में मूल बांग्ला में प्रकाशित किताब“शिक्षिता पतितार आत्मचरित”, का हिन्दी अनुवाद एवं सम्पादन मुन्नी गुप्ता ने किया है, जिसका प्रकाशन श्रुति बुक्स, गाजियाबाद से हुआ है. यह एक ‘वेश्या’ की आत्मकथा है. इस किताब की लम्बी भूमिका का एक अंश एवं आत्मकथा का एक अंश स्त्रीकाल के पाठकों के लिए. तीसरी क़िस्त

वृन्दावन के महंत जी ने मुझसे जो कुछ कहा था, वह मेरे जीवन में अक्षरशः सत्य प्रमाणित हुआ. उन्होंने कहा था, अन्न और वस्त्र की अनुकम्पा तो तुम पर बहुत रहेगी.” और मैंने तो जीवन में बार-बार उनकी बात को प्रमाणिक पाया. मैंने महसूस किया- सचमुच दरिद्रता को दूर करना कठिन नहीं लेकिन वासना के हमले से कोई किसी को नहीं बचा सकता. जीवन में अधिकांश लोग ऐसे मिलेंगे जो वासना रूपी राक्षसी का ग्रास बनाने के लिए तत्पर दिखाई पड़ेंगे…..

मैंने कहा, रानी मौसी मेरा सौन्दर्य फीका पड़ गया हैअंगप्रत्यंगदुर्बल और शुष्क पड़ गये हैंसर के बालों में भी वह पहले वाली शोभा नहीं रहीइस पथ पर चलकर मेरे लिए अब क्या कोई उपार्जन संभव हो सकेगा?

रानी मौसी ने समझाया, पतिता के पास केवल रूप ही संपत्ति है ऐसी बात नहींलम्पट रूप देखकर मतवाले नहीं होतेतुम खुद देखोगी अत्यंत कुरूप वेश्याएं सुन्दरियों की अपेक्षा ज्यादा धन कम रही हैंइसलिए कहा जाता है जिसके साथ जिसका मन मिल जायपुरुष जब सांझ होते ही वेश्याओं के मुहल्ले में चक्कर लगाना शुरू करते हैंतब कामदेव उनकी आँखों में पट्टी बाँध देते हैं.

साभार गूगल

 रानी मौसी ने मुझे अनेक कौशल सिखाए. फैशन से साड़ी पहनना, खड़े होने का सलीका, बात करने का सलीका, रास्ते पर चलने की भंगिमा, क्या करने से राह चलते लोग आकर्षित होंगे, यह सब उन्होंने मुझे अच्छी तरह सिखा दिया था. मन में भयंकर दुःख एवं क्षोभ क्यों न हो? लेकिन  ग्राहक से हंसकर बात करनी होगी. ऐसा प्रेम दिखाना होगा कि सामने वाले को ज़रा भी अंदाज न लगे कि वह बनावटी है. प्रणयी के मन में नशे की चाहत को देखकर उसका मन रखने के लिए किस तरह शराब से भरे ग्लास को ओंठों से छुआकर उसे पीने का अभिनय करना होगा, यह रानी मौसी ने खुद करके दिखा दिया. लम्पटों में से जो जिस प्रकार का मनोरंजन चाहता है, उसे वैसा ही मनोरंजन देना होगा. इस तरह लोगों को धोखा देने का नाटक करते-करते एक दिन मुझे एहसास हुआ, जैसे मेरे भीतर किसी नितांत नवीन मानदा ने जन्म ले लिया हो.

मैं अच्छा गा सकती थी. मैं पहले ही बता चुकी हूँ कि मेरी आवाज़ बहुत मधुर थी. यह विद्या पतिताओं के जीवन में बहुत काम आता है  रानी मौसी ने मुझे संगीत सिखाने के लिए एक अच्छे उस्ताद की व्यवस्था कर दी.

उन्होंने कहा, यहाँ तुम्हारा ब्रह्म संगीत या स्वदेशी गीत की कोई क़द्र नहींवेश्याओं के मोहल्ले में लपेटा हिन्दी ग़ज़ल अथवा  उच्च अंग की ख्याल ठुमरी आदि का ही रिवाज हैकीर्तन भी सीख सकती हो.

मैंने तीन-चार महीने में ही संगीत शिक्षा में प्रगति दिखाई. कीर्तन सीखने में कुछ देर लगी.

ठग विद्या के साथ-साथ मुझे मनुष्यों की परख विद्या भी सीखनी पड़ी. कौन चोरी के मकसद से आया है, कौन भयंकर बीमारी से ग्रस्त है, कौन स्वभाव से दुष्ट है, तो कौन सरल एवं भला आदमी है-यह मुझे उसका चेहरा देखकर ही पकड़ लेना पड़ता था. कई बार मैं मुसीबत में भी पड़ी हूँ. मोहल्ले में एक ऐसा दल भी घूमता था, जिसका पेशा वेश्याओं के घर में डाका डालना था. कभी-कभी वेश्याओं की हत्या भी कर डालते थे. इस तरह इस पेशे में भी पतिताओं को जान हथेली पर लेकर चलना पड़ता था. दो-चार रुपयों के लिए बिलकुल अपरिचित पुरुष का मनोरंजन करना जोखिम का काम था, ऐसा भी हो सकता था-वह धोखेबाज, वेश्या के कलेजे में छुरी उतार उसके रुपये-गहने चुरा भाग जाता. अभागिन और कहीं आँख भी नहीं खोलती. पतिताएं अपने पाप से कभी-कभी इसी रूप में छुटकारा पाती थीं.

पढ़ें: एक विदुषी पतिता की आत्मकथा: पहली क़िस्त

            मेरे पास एक सज्जन आया करते थे. वे कलकत्ते के एक डॉक्टर थे. आज तक उन्होंने विवाह नहीं किया था. उन्होंने मेरा बहुत उपकार किया था. वे एक-से-एक अच्छी औषधियाँ लाकर देते, जिससे मैं जल्द-से-जल्द स्वस्थ हो जाऊं. इलाज में उन्हें असाधारण निपुणता हासिल थी. उन जैसे डॉक्टर को फीस देकर अपने घर बुलाना मेरे औकात के परे था. कभी-कभी वे दो-तीन घंटे मेरे साथ, मेरे कमरे में गुजारा करते और बदले में मुझे दस-बीस रुपये दे जाते. कभी-कभी शाम ढले मुझे साथ ले मोटर में घूमने निकलते. हम ग्रांड होटल गंगा के किनारे या इडेन गार्डेन घूमकर रात गये घर निकलते. उस दिन मुझे पचास रुपये  मिलते. उनकी दया से मैं महीने में प्राय: दो सौ रुपये उपार्जित कर लेती.

रानी मौसी ने मुझे सचेत करते हुए लिखा था, बेटीयही तुम्हारे कमाने का समय हैढलते उम्र को सदा याद रखोअभी से बचत नहीं की तो भविष्य में जीवन बड़ा कष्टकर होगातुम तो समझ गयी होगीइस राह पर बन्धुबांधव कोई अपना नहींएकमात्र रुपये ही सबकुछ है.

 इन डॉक्टर महोदय की अनुकम्पा से मुग्ध हो मैंने रोजगार के अन्य पहलुओं को अनदेखा कर दिया था. रानी मौसी ने समझाया था यह बाबू हमेशा नहीं रहेगा और रानी मौसी की भविष्यवाणी झूठ नहीं हुई.

उसी साल आश्विन महीने में पूर्वी बंगाल में भयंकर तूफ़ान आया जिसमें अनेक लोग मारे गये. लोगों के घर-द्वार, बाग़-बगीचे तथा फसलों से भरे खेत बर्बाद हो गये. लोगों को राहत देने के लिए कलकत्ते में एक राहत शिविर खोला गया. विख्यात बैरिस्टर व्योमकेश चक्रवर्ती और चितरंजन दास (ये दोनों अब मर चुके हैं) इस राहत कार्य में सबसे आगे थे. उनके प्रयासों से कई हजार रुपए इकट्ठे हुए. युवकों ने सड़कों पर उतरकर गीत गाये, भिक्षा माँगी, वे वेश्या टोले में भी आये. हमने भी यथा संभव दान दिया.

एक दिन हमारे वही डॉक्टर बाबू मेरे पास आये और कहा- मानी अगर तुम पतिता महिलाएँ मिलकर कुछ चंदा जुटा दो और उसे पूर्वी बंगाल  साइक्लोन  फण्ड में भिजवा दो तो मिस्टर सीआरदास विशेष प्रसन्न होंगेवे चाहते हैं इस महत्त कार्य में समाज के सभी स्तर के लोग शामिल हो बताओ तो तुम कर पाओगी यह कार्य?

मैंने कहा, देखियेमेरे लिए यह रास्ता नया हैमेरी सबसे जान पहचान भी नहीं हैआपने भरोसा दिलाया तो मुझसे जहाँ तक बन पड़ेगा मैं करूँगी.

उन्होंने कहा, मैं राम बगानसोनागाछीफूलबगान की ऐसी अनेक महिलाओं को जानता हूँथियेटर की अभिनेत्रियों को भी इसमें साथ लिया जा सकता है.

जैसा कि डॉक्टर साहब ने बताया था उनका मिस्टर सी. आर. दास से घनिष्ठ परिचय था. डॉक्टर बाबू तथा उनके कुछ मित्रों की सहायता से कलकत्ते के वेश्या टोलों से कई हजार चंदे की राशि एकत्र हुई. आम जनता के लिए किये गये कार्यों में यह मेरा पहला योगदान था, इस सुअवसर पर मैंने मिस्टर सी. आर. दास के चरण सबसे पहले छुए. हमने जब प्रणाम कर उनके पाँव में रुपये की थैली रखी तब उनके आँखों से आनंद के आँसू बह निकले. उन्होंने हमारे माथे को छूकर आर्शीवाद दिया. हमें समझ में आ गया कि वे सच्चे अर्थों में देशबंधु हैं.

एक दिन राजबाला से मुलाक़ात करने गयी तो देखा उसका कमरा अनेक कीमती सामानों से सजा है. एक बड़ी-सी पलंग, दीवाल आईना, बुककेस आदि से घर सजा हुआ है. बिस्तर पर नई गद्दी बिछाई गयी थी. उसके शरीर पर मैंने कुछ नए आभूषण भी देखे. उसने रानी मौसी का सारा क़र्ज़ चुका दिया था और उसके पास कुछ नगद रुपये भी बच गये थे. खोला बाड़ी में रहनेवाली वेश्याएं भी इतना अर्थ उपार्जित कर सकती हैं. इसका मुझे कोई अनुमान नहीं था. मैंने जब राजबाला से उसकी सम्पन्नता का कारण पूछा तो उसने बताया-वेश्यालय में  किस्मकिस्म के लोग आते हैंरईस जमींदारों के बच्चे अपने दोस्तमित्रों सहित खुले आम वेश्याओं के पास जाते हैंइन्हें लोकलज्जा का भय नहीं सताताये गीतसंगीतमदिरापानआदि द्वारा मौजमस्ती में लिप्त होते हैंये छोटीमोटी खोलाबाड़ियों में नहीं आते.

उनका मुख्य तीर्थ-स्थल है-रामबगान या सोनागाछी. एक और दल लम्पटों का है जो सामाजिक निंदा से डरता है. समाज में ये ऊँचे पदों पर जो बैठे हैं और सम्मानित हैं- ये लुके-छिपे ढंग से वेश्यालयों में कदम रखते हैं, इनके आगमन का मूल कारण वासनापूर्ति मात्र है. गीत-संगीत अथवा अन्य  किसी प्रकार के मनोरंजन से इन्हें कोई लेना-देना नहीं. ये रात के अँधेरे में आते हैं और अँधेरा रहते ही चले जाते हैं. दूसरी ओर लोक-समाज में भी अपनी मान-मर्यादा और सुनाम को बचाए रखते हैं. कवि, साहित्यकार, समाज सुधारक, नामवर वकील, स्कूल शिक्षक, कॉलेज प्रोफ़ेसर, राजनैतिक नेता, उपनेता, सरकारी दफ्तर के बड़े  कर्मचारी, ब्राह्मण, महामहोपाध्याय पंडित, विद्याभूषण, तर्क. . . . . आदि उपाधि प्राप्त अध्यापक, पुरोहित, महंत और छोटे-मोटे व्यवसायी ये सभी इसी श्रेणी के हैं. मेरे पास हाईकोर्ट के एक विख्यात वकील का आना जाना है, वे ऊँचे कुल के ब्राहमण के बेटे हैं. उनका नाम है श्री. . . . . उम्र कुछ अधिक होगी. वे मुझे भरपूर रुपये देते हैं. एक दिन मैंने मजाक में उनसे कहा था, “तुम हाईकोर्ट के ऊँचे स्थान पर प्रतिष्ठित होंगे.”

मेरी वह बात एक दिन सच हो गयी. वे सचमुच हाईकोर्ट में ऊँचे आसन पर पहुँच गये. खुश होकर उन्होंने मुझे ये सब कीमती सामान उपहार में दिए. उन्होंने ही मुझे यह कीमती अंगूठी भेंट दी है.

पढ़ें : एक विदुषी पतिता की आत्मकथा: दूसरी क़िस्त

राजबाला से बातें करने में शाम हो गयी. मैं जाने के लिए उठ ही रही थी कि किसी ने राजबाला के कमरे में प्रवेश किया. राजबाला ने बड़ी आवभगत के साथ उन्हें बैठाया. बाहर निकल मैंने फुसफुसाते हुए राजबाला से पूछा, “ये कौन है? देखने में तो ब्राह्मण , पंडित जैसे दिखते हैं.”

राजबाला ने कहा, “ये मेरे बाबुओं में से एक हैं. बहुत बड़े अध्यापक हैं. ये महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित हैं. ये आजकल मुझे लेकर पड़े रहते हैं. लेकिन इनके बारे में एक बात सुनी. इनमें एक दोष है. इन्हें नित नूतन चेहरे चाहिए. वेश्याओं के बीच ये खासे परिचित हैं. इन्हें खोलाबाड़िया ही पसंद हैं, जहां तक हो सकता है मैं इनसे वसूली कर रही हूँ, न जाने कब ये खिसक जाएँ.”

मुन्नी गुप्ता, असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय, कोलकाता-700073

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ISSN 2394-093X
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