भारतीय वामपंथियों का ‘कन्हैया सिन्ड्रोम.’!

विनीता त्यागी

कायदे से कन्हैया कुमार को देश के किसी एक सीट के एक आम उम्मीदवार की तरह ही देखा जाना चाहिए था। ऐसा शायद संभव भी होता। लेकिन बिहार में महागठबंधन का तालमेल और सीटों के बंटवारे के बाद से ही कन्हैया को लेकर जो भी बातें सामने आई हैं, वे आंखें खोलने वाली हैं। अंतिम तौर पर राजद का फैसला आने के पहले तक सीपीआई इस उम्मीद और लगातार कोशिश में थी कि बेगूसराय सीट पर उसके उम्मीदवार कन्हैया को खड़ा किया जाए। लेकिन राजद या महागठबंधन ने हर तरह के दबाव या गुजारिश को किनारे करके तनवीर हसन को बेगूसराय का उम्मीदवार के रूप में घोषित किया। उसके बाद से अब तक लगातार कन्हैया के समर्थकों के झुंड ने जितना कन्हैया का समर्थन किया है, उससे ज्यादा असहमत लोगों के खिलाफ बेहद अफसोसनाक अभियान चलाया है। तो अगर उसकी प्रतिक्रिया में अब जवाब भी सामने आ रहा है तो इससे परेशानी क्यों? परेशानी इसलिए कि जिनसे अब तक चुप रहने की ही उम्मीद की जाती रही है, वे अब बोलने लगे हैं। सवाल है कि कन्हैया के लिए भाकपा को बेगूसराय सीट ही क्यों चाहिए थी? 

कन्हैया को मोदी के खिलाफ एक मुखर और ताकतवर आवाज के रूप में जाना जाता है। कन्हैया हर जगह इसी रूप में दिखे हैं कि वे मोदी के खिलाफ सबसे तल्ख बात भी बड़े आराम से कह जाते हैं। लेकिन जिस दौर में गौरी लंकेश को महज आरएसएस-भाजपा की राजनीति से इत्तिफाक नहीं रखने की वजह से मार डाला गया, क्या उसमें यह असहज नहीं लगता कि एक व्यक्ति मोदी या भाजपा के खिलाफ पोपुलर भाषा में इतनी तल्ख जुबान के साथ बोल रहा है और न केवल सुरक्षित है, बल्कि देश की सत्ता संस्थानों का दुलारा भी है? सत्ता के प्रतिपक्ष या फिर विरोधी दलों की कुछ नुमाइंदों या फिर किसी नेता ने अगर मोदी के खिलाफ इस कदर तल्ख जुबान से बोला होता तो क्या वह दुनिया के पर्दे पर हर जगह इतनी ही आसानी से मौजूद रहने दिया जाता? फिर क्या वजह है कि कन्हैया के मोदी के खिलाफ इतना मुखर होकर भी सुरक्षित होने पर कोई शक नहीं होता? समूचा मीडिया जगत कन्हैया को हमेशा ही सिर पर उठाए क्यों रखा? 

बहरहाल, ये सवाल बाद के हैं। फिलहाल सबसे पहले यही देखने की जरूरत है कि जिस कन्हैया और बेगूसराय की सीट के जरिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां और उनसे जुड़े लोग या उनके समर्थक सीधे क्रांति का हो जाना घोषित कर रहे हैं, क्या वहां कन्हैया का दावा बन रहा है? एक, विपक्षी राजनीति के लिए मौजूदा दौर का सबसे बड़ा तकाजा क्या है? भाजपा और मोदी को किसी भी कीमत पर सत्ता से बाहर करना, ताकि बचे हुए संघर्षों को बचाया और मजबूत किया जा सके। इसके लिए जरूरत क्या है? जिस विपक्ष के बिखरे होने का फायदा मोदी या भाजपा को मिला है, उस बिखराव को रोकना और एकजुट होकर भाजपा के खिलाफ मोर्चे को मजबूत करना, ताकि भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सके। 

इसमें बेगूसराय में कन्हैया का खड़ा होना कितना सहायक है? न केवल सहायक नहीं है, बल्कि विपक्ष की राह को मुश्किल करने वाला है। हां, यह मोदी या भाजपा की राह आसान बनाएगा और इस तरह यह भाजपा के लिए सहायक है। बेगूसराय सीट पर कन्हैया का दावा कितना उचित है? बेगूसराय में वोटों की संख्या, उसमें जातियों की भूमिका, अलग-अलग जातियों का समीकरण और मौजूदा समय में वोटिंग का रुझान… सब के सब कन्हैया की जीत को नतीजे से दूर कर रहे हैं। किसी सामन्य राजनीतिक समझ वाले व्यक्ति को भी बेगूसराय की यह तस्वीर और समीकरण देखने के बाद यह समझ में आ जाएगा कि इस सीट पर कन्हैया का खड़ा होना एक खिलवाड़ से ज्यादा कुछ नहीं है।

फिर कन्हैया का बेगूसराय-जिद क्यों कायम रहा? दरअसल, कन्हैया के सहारे और बहाने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियां न केवल अपना जीवनदान देख रही हैं, बल्कि कम्युनिस्ट पार्टियों के भीतर जातियों की नुमाइंदगी, जाति के सवाल उठने और उस पर हो रहे आलोड़न के दौर में फिर से एक सवर्ण को नेता बना कर शीर्ष या प्रभावी पद पर खड़ा करने की कोशिश चल रही है। इससे कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन क्या यही वक्त है अंतिम तौर पर कन्हैया की शरणागत हो जाने के लिए?

यह छिपा नहीं है कि इस बार का चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं है। सत्ता में मौजूद भाजपा के सामने लड़ाई जब तक रणनीतिक नहीं होगी, तब तक मोदी से सत्ता से बाहर करना मुमकिन नहीं होगा। इस रणनीति के तहत बेगूसराय की सीट पर कन्हैया को खड़ा नहीं होकर देश भर में भाजपा के खिलाफ हवा बनाने में अपनी भाषण-क्षमता का इस्तेमाल करना चाहिए था। लेकिन कन्हैया की जिद ने बेगूसराय की सीट पर भाजपा उम्मीदवार गिरिराज सिंह की पेशानी की लकीरों के तनाव को कम किया है। इसके बावजूद कन्हैया के समर्थकों को नहीं समझ में आ रहा है कि वे क्रांति का समर्थन कर रहे हैं या जाति का!

अब अगर नतीजे के तौर पर तनवीर हसन की जीत हुई तो क्या कन्हैया और उनके समर्थक यह कहने जा रहे हैं कि कन्हैया ने इस जीत में सहायक तत्व की भूमिका निभाई? अगर गिरिराज सिंह की जीत हुई तब कन्हैया को किसके पक्ष में सहायक तत्त्व के रूप में पेश किया जाएगा? बेगूसराय सीट की जमीनी स्थिति के मद्देनजर फिलहाल यही दो विकल्प दिख रहे हैं। तीसरे विकल्प यानी कन्हैया की जीत की संभावना नहीं दिख रही। अगर कन्हैया और उनके समर्थक बुद्धिजीवी अपनी सार्वजनिक घोषणाओं को लेकर ईमानदार होते तो इस चुनाव में कन्हैया देश के अलग-अलग हिस्से में जाकर मोदी या भाजपा के खिलाफ रैली करते, भाषण देते। लेकिन अभी तो ऐसा लगता है कि मोदी के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष वोटों को बांटने वाले के रूप में कन्हैया को शायद लंबे वक्त तक याद रखा जाएगा!

लेकिन कन्हैया के बचाव में एक ऑनलाइन पोर्टल सबलोग में लेखक अनीश अंकुर ने कन्हैया की जाति यानी भूमिहार होने पर उठे सवालों का जवाब देते हुए श्रीकृष्ण सिंह के उस जवाब का सहारा लिया, जो उन्होंने काफी पहले जेपी को दिया था। लेखक शायद कन्हैया कुमार की पार्टी के ही सदस्य हैं। यानी एक कम्युनिस्ट को अपनी जाति पर उठे सवालों का जवाब देने के लिए श्रीकृष्ण सिंह जैसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री के विचारों या वचनों का सहारा लेना पड़ा है, जिसके बारे में मशहूर है कि उसने बिहार के अपने मुख्यमंत्रित्व काल में भूमिहारों को ‘सरकारी जाति’ के रूप ख्याति दिलाई! यह सिर्फ एक व्यक्ति का उदाहरण है, कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े ज्यादातर बुद्धिजीवियों की विचार-श्रृंखला इसी तरह संचालित हुई। हालांकि कम्युनिस्ट पार्टियाँ श्रीकृष्ण सिंह से लड़ते हुए बिहार में बढ़ी हैं और उन्हें कोई आदर्श शासक नहीं मानतीं।

हैरानी की बात यह है कि नेतृत्व और पद-धारण के लिए जो कम्युनिस्ट पार्टियां एक खास दलील देती रही हैं, वह दलील भी अब कचरे के ढेर में फेंक दिया गया है। यानी जब भी यह सवाल उठाया गया कि कम्युनिस्ट पार्टियों के ढांचे में शीर्ष या संचालक पदों पर दलित-पिछड़ी जातियों और आदिवासियों के लिए क्या जगह है, तो पार्टी के नेताओं की ओर से सदस्यता लेने से लेकर जनता के बीच संघर्ष और पद की ओर बढ़ने वाली सीढ़ियों से होकर ही छत पर होने दलील पेश की जाती है। सवाल है कि महज दो साल पहले जेएनयू के देशद्रोही कांड से पैदा हुआ कन्हैया क्या सचमुच इतना ताकतवर और ईमानदार है कि पार्टी में सांसद के लिए टिकट मिलने के मोर्चे पर उसे एक सुयोग्य नेता मान लिया गया? अगर हां, तो क्या देश की कम्युनिस्ट पार्टियों ने सालों संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं को दरकिनार कर ‘प्रक्रिया के तहत’ आगे बढ़ने के रास्ते खोल दिए हैं? अब तक यह बंद रहने के क्या कारण हैं!

एक वाहियात वजह यह बताई जाती है कि कन्हैया को बेहतरीन भाषण देने आता है… वह संसद में मोदी को सामने से जवाब दे सकेगा। मगर हकीकत उतना ही सुहाना नहीं है। क्या यह मान लिया गया है कि मोदी को ही आना है? फिर अगर अच्छा भाषण देना ही नेता होने की कसौटी है तो फिर मोदी अच्छा भाषण देते हैं तो उन्हें ही देश का नेता रहने दिया जाए। कन्हैया की जरूरत क्यों है? कन्हैया के जेएनयू स्टूडेंट यूनियन के नेता के रूप में और बाकी समय के इतिहास के बारे में कई लोगों ने लिखा है कि कैसे कन्हैया का अतीत दलित-पिछड़ी जातियों के खिलाफ रहा है। इसके अलावा, नौ फरवरी, 2016 की घटना भी कैसे रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद उठे तूफान में कन्हैया का जन्म हुआ, लेकिन ‘जय भीम- लाल सलाम’ के नारे के पाखंड से कन्हैया आगे नहीं बढ़ सके।

चुनाव में खड़ा होने के बाद भी भाजपा नेता भोला सिंह की मूर्ति को माला पहनाने से लेकर पप्पू यादव तक के साथ मिलने-जुलने में परेशान नहीं होने जैसे कई तरह के विचलन जिस तरह सामने आ रहे हैं, उससे साफ है कि कन्हैया का अगला रास्ता क्या है। लेकिन जिस तरह कुछ बुद्धिजीवियों ने उनके पक्ष में झंडा उठा कर आतंक मचाया, उससे मजबूरन उनकी जातिगत पृष्ठभूमि देखने की जरूरत महसूस हुई। आखिर क्यों ऐसा हुआ कि अकादमिक जगत के कन्हैया के सारे हमदर्द बुद्धिजीवी भूमिहार या ब्राह्मण हैं या सवर्ण हैं? मौजूदा समय की राजनीति की जरूरत के मुताबिक कन्हैया की उम्मीदवारी पर सवाल उठाने वालों को बिना किसी हिचक के सीधे-सीधे जातिवादी कहके क्यों अपमानित करने की कोशिश की गई? क्या यह जातिवादी कुंठा कन्हैया के समर्थकों के भीतर ही नहीं बजबजा रही है?

यह याद रखना चाहिए कि भारतीय वामपंथी राजनीति में कन्हैया का ‘अवतार’ ऐसे समय में हुआ, जब देश की कम्युनिस्ट पार्टियों को इस सवाल से लगातार दो-चार होना पड़ रहा है कि इनके ढांचे में दलित-पिछड़ी जातियों के लोग कहां हैं और इनके वास्तविक सवालों के लिए जगह क्या है! क्या यह वही रवैया नहीं है जिसके चलते दलित-वंचित जातियों के बीच कम्युनिस्ट पार्टियों के लिए कोई जगह नहीं बन पा रही.

लेखिका सोशल सेक्टर से जुड़ी हैं.

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