फासीवाद की ओट में जातिवाद में गर्क होता लेनिनग्राद


अरुण आनंद    

अरुण आनंद इस आलेख में बिहार-सीपीआई के जातिवाद, जिसकी कार्यकारिणी में 75% सवर्ण , लगभग 37 प्रतिशत अकेले भूमिहार हैं, सहित बेगूसराय के कथित लेनिनग्राद में जातिवाद के खेल का जायजा ले रहे हैं. आंकड़ों और तथ्यों तथा साहित्यिक उद्धरणों के जरिये बिहार-सीपीआई की जातिवादी भूमिका समझने के लिए यह आलेख जरूर पढ़ें.

‘यहां का क्या हाल-चाल है?
क्या रहेगा? यहां बस मीठा कम्युनिस्ट है, खाली मीठा-मीठा बोलेगा आ भोट मांगेगा। बटाईदारी की बात करने जाओ त बोलेगा-कामरेड, अभी वर्ग संघर्ष का समय नहीं है।त हम पूछते हैं, कौन चीज का समय है-सिरिफ मार खाने का? हम ही कौन क्रांति कर रहे हैं। सरकारी कानून के मुताबिक हक मांगने से भी गये?’’ कामरेड धीरे-धीरे तैश  में आ गये थे।
कामरेड, ई बुढ़वा कामरेड लोग जो न कराबे। मुसहर टोली के लोगों ने कहा, मजूरी बढ़ाओ, पूरा टोला आग में फूंक दिया! पार्टी ऑफिस में कहने गये तो सिकरेटरी साहेब बोले-अखबार में खबर छपना जरूरी है, एस.डी.ओ के पास चलते हैं….पीड़ितों को सरकारी सहायता मिलनी जरूरी है। हमने पूछा-उ टुन्नू बाबू वगैरह का क्या होगा? तब बोले-पहले डी.एस.पी. के पास चलिये, उ बाद में देखेंगे। आज तक देख ही रहे हैं, इधर केस रफा-दफा!’
“कोंपल-कथा: (उपन्यास: अरुण प्रकाश पेज 25-26)

पार्टी के वरिष्ठ सवर्ण नेताओं के साथ प्रेस करते कन्हैया कुमार जातिवाद को नकारते हुए


हिन्दी लेखक अरुण प्रकाश ने 90 के दशक में यह विवरण अपने उपन्यास ‘कोंपल-कथा में दर्ज किया था। लेनिनग्राद का पर्याय बतलाये जाने वाले बेगूसराय के लोकेल पर रचित इस उपन्यास में उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में जो कुछ भी लिखा है वह इस बात की गहरी तस्दीक से उपजा है कि जातिवाद और सामंतवाद किस तरह वाम संगठनों की आंतरिक संरचना में गहरे पैबस्त रही है। कभी इसी बेगूसराय के बारे में कहा जा था कि यहां भाकपा भूमिहार आधारवाली पार्टी है। जब सामंतों, भूमिपतियों के विरुद्ध मजदूर किसानों ने आंदोलन का आगाज किया तो जमीन जायदाद बचाने के लिए यहां के भूमिहार सामंतों ने भाकपा का झंडा थाम लिया। अपनी इन्हीं संकीर्णताओं के कारण अपने आधार क्षेत्रों में भी वामपंथ लगातार सिकुड़त जा रहा है और दक्षिणपंथी शक्तियां उस स्पेस को अपने प्रभाव क्षेत्र में समाहित करती जा रही हैं। एक दौर था जब मजदूर किसानों का सबसे बड़ा संगठन वाम के पास था, लेकिन वह भी आज उनसे छिटक चुका है। कारण कई हैं लेकिन सबसे प्रमुख है पार्टी की संरचना के अंदर व्याप्त सवर्ण बहुलता जिनके कारण यह लगातार हाशिये की ओर कदमताल करती रही है।


सी.पी.आईः वर्ग की ओट, पर जाति पर जोर
वामपंथ को सर्वहारा समाज की जमीनी पार्टी कहा गया है। एक ऐसी पार्टी जो कैडर बेस काम करती है और एक निश्चित वैचारिकी के साथ अपने कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करती रही है। बिहार में भी दलित-दमित जमात की आवाज को उसने एक दौर में प्रमुखता से ऐड्रेस किया है, लेकिन बदलते समय समाज के अनुकूल उसने अपने को परिवर्तित नहीं किया जिसके परिणामस्वरूप उनका आधार क्षेत्र लगातार सिमटता गया। देश ,दुनिया की राजनीति कहां से कहां चली गई, लेकिन सी.पी.आई 70 के दशक में जहां थी, आज भी वहीं खड़ी है। ठीक सोहनलाल द्विवेदी की कविता ‘खड़ा हिमालय बता रहा है’ की तर्ज पर कि-‘खड़ा हिमालय बता रहा है/डरो न आंधी पानी में/खड़े रहो तुम अविचल होकर/हर संकट तूफानी में।’ देश , समाज में चाहे मंडल आये चाहे कमंडल, हम अपने सवर्ण प्रभुत्व से लीक भर भी इधर से उधर नहीं होंगे। पार्टी में शीर्ष नेतृत्व का सवाल हो या स्थानीय नेतृत्व का- जब तक आप भूमिहार नहीं होंगे, पार्टी में आपकी कोई बकत नहीं। पार्टी की 32 सदस्यीय राज्य कार्यकारिणी में आज भी अकेले 24 ऊंची जाति के सदस्य हैं। मुस्लिम, दलित और ओबीसी के महज 8 सदस्य हैं। यह स्थिति तब है जब मंडल के बाद राजनीति दलों में नेतृत्व के सवाल पर बहुजन समाज की हिस्सेदारी को लेकर लगभग सभी पार्टियों में आमूल बदलाव आये हैं। आरक्षण और हिस्सेदारी के सवाल को लेकर भाजपा जैसी प्रतिगामी पार्टियां भी सोशल इंजीनियरिंग के रास्ते आ गई हैं। लेकिन वामपंथ में खासकर सी.पी.आई के अंदर रत्ती भर भी बदलाव नहीं आया है। 32 सदस्यीय इस पार्टी की राज्य कार्यकारिणी में अकेले 12 भूमिहार, 5 राजपूत, 5 ब्राहण और 2 कायस्थ हैं। शेष बचे पदों पर यादव समाज से 4 कोईरी से 1 मल्लाह से 1 और मुस्लिम, दलित समुदाय से भी 1-1 सदस्य हैं। यानी निर्णायक शीर्षस्थ पदों पर अकेले भूमिहार 37.5 प्रतिशत, 15.6% प्रतिशत राजपूत,और ब्राहण, 6.2 प्रतिशत कायस्थ। यानी 12 प्रतिशत सवर्ण आबादी समूह की पार्टी में हिस्सेदारी 74.9 प्रतिशत और 88 प्रतिशत की आबादी की हिस्सेदारी महज 26.1 प्रतिशत। पार्टी का जनाधार ओबीसी और दलितों का और प्रभुत्व सवर्णों का। लड़े-भिड़ें कटे-मरें बहुजन और उसे दिशा-निर्देश  करें अल्पजन। और यह भी चस्पां करें कि वे तो अभी इस लायक हुए ही नहीं कि पार्टी का निर्णयकारी हिस्सेदारी का पद उन्हें सौंपा जाए। है न मिराकल! पार्टी का आधार जिस जाति समुदाय में है वह महज 26.1 प्रतिशत हैं और जिनका आधार नहीं है वे सवर्ण पार्टी की कार्यकारिणी में 74.9 प्रतिशत पर काबिज हैं। और हम दंभ पिट रहे हैं कि दुनिया में सर्वहारा क्रांति अब होने ही वाली है।
अब आयें सीपीआई की राज्य कार्यकारिणी की 9 सेक्रेटारियेट का ढांचा देखेंः इसमें 3 भूमिहार,1-1 ब्राहण,राजपूत, 2 यादव, और 1-1 दलित और मुस्लिम सदस्य हैं। प्रतिशत के आंकड़ों में जाएं तो भूमिहार 30 प्रतिशत, ब्राहाण-राजपूत 10 प्रतिशत, यादव 20 प्रतिशत, 10-10 प्रतिशत दलित मुस्लिम हैं।

बिहार के सारे प्रमुख अख़बारों में कन्हैया कुमार का विज्ञापन


मंडल उभार के दौर में कभी कांशीराम ने भारत की राजनीतिक पार्टियों को लक्षित करते हुए कहा था कि चूंकि सारे दल मनुवादी हैं इसीलिए सभी दलों के शीर्ष पदों पर ब्राहण भरे हुए हैं। उनके इस आरोप को मंडल बुद्धिजीवियों ने लगातार क्लेम किया और समाज के अन्य क्षेत्रों में भी बहुजन हिस्सेदारी का सवाल मुखर करते रहे परिणामस्वरूप अपवाद रूप में ही, कूटनीति के ही तहत गैर-ब्राहण भी विभिन्न दलों में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होते गए। किंतु वामपंथ और खासकर सीपीआई इस प्रभाव से पूरी तरह निर्लिप्त ही रही। जो पार्टियां ब्राहणवाद और वर्णवाद की झंडावरदार थीं उनके अंदर भी नेतृत्व में बहुजन समाज के लिए बड़े बदलाव परिलक्षित हुए लेकिन जिस वामपंथ पर सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन को वैज्ञानिक ढंग से लागू करने का कार्यभार था वह यथास्थितिवाद और सवर्ण वर्चस्व में लीन रही। उसने हमेशा जाति के सवाल को नेतृत्व के सवाल पर अनदेखी की। बहुजन की जगह सवर्ण को तवज्जो देती रही। जहां प्रतिगामी दलों ने ब्राहणवाद को नियंत्रक पदों से नीचे उतारकर शूद्रो को शासन का हिस्सेदार बनाया वहीं वामपंथ इस मामले में टस से मस नहीं हुआ। बंगाल, केरल, त्रिपुरा आदि जिन राज्यों में उनका आधार था वहां से भी इसी कारण वे लगातार सिमटते चले गए। अपने प्रभाववाले इलाके में इन दलों ने ओबीसी, आदिवासी और दलित जातियों से विरले ही कोई स्तरीय नेता को उभरने का मौका दिया हो।

समर्थन और विरोध की हकीकत
बेगूसराय के बारे में आरंभिक दिनों में जो खबरें आयीं उसमें कन्हैया को .स्वयंभू विजेता और गिरिराज सिंह को दूसरे नम्बर पर बतलाया जाता रहा। इस कड़ी में राजद के जो सबसे मजबूत उम्मीदवार तनवीर हसन थे उनको खबरों से पूरी तरह बाहर कर दिया गया। इसके लिए मीडिया और उनके समर्थकों ने जो नैरेटिव गढ़े, उसमें तथ्य कम और भावनात्मक के सहारे भावुक बनाकर आम मतदाताओं को अपनी जद में ले लेने की धुर्तता ज्यादा काम कर रही थी। एक विशेष रणनीति के तहत पिछले लोकसभा और गत बिहार विधान सभा के नतीजों पर चुप्पी रखकर यह प्रोपेगेंडा परवान चढ़ाया जाता रहा, लेकिन जैसे ही सोशल मीडिया पर इसके प्रतिवाद के रूप में तथ्य रखे जाने लगे तो जाकर यह बात मीडिया से भी उभरनी आरंभ हुई है कि वहां असली मुकाबला तो तनवीर हसन और गिरिराज सिंह में है। कन्हैया तो तीसरे स्थान पर पिछली बार से ज्यादा मार्जिन के अंतर से पीछे होंगे।

पिछले लोकसभा चुनाव 2014 में जब भाजपा जदयू गठबंधन टूटा था तो सी.पी.आई और जदयू गठबंधन ने साथ मिलकर बेगूसराय से लोकसभा का चुनाव लड़ा था। इसमें सीपीआई को 1 लाख, 92 हजार वोट आये थे। राजद को 3.70 लाख वोट पड़े थे और भाजपा के भोला सिंह को 4 लाख 18 हजार वोट आये थे। यहां गौर करनेवाली बात यह है कि सीपीआई ने जदयू के साथ मिलकर तीसरा  स्थान हासिल किया था और भाजपा के साथ तब रामविलास पासवान के साथ ही उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी का गठबंधन भी साथ था। राजद ने अकेले चुनाव में भाजपा से महज 48 हजार मतों के अंतर से इस पराजय का सामना किया था। आज की बदली हुई स्थिति में सीपीआई अकेले है और भाजपा को रामविलास के साथ जदयू का समर्थन हासिल है, लेकिन राजद के साथ इस बार उपेंद्र कुशवाहा, जीतनराम मांझी, जदयू का विद्रोही शरद समूह और एक बड़ा मल्लाह ब्लॉक जो भाजपा का आधार ब्लाक था मुकेश सहनी के कारण जुड़ गया है इसलिए जीत की पूरी संभावना इसबार तनवीर हसन के पक्ष में जाती हुई नजर आ रही है। जो लोग कन्हैया को बेगूसराय से विजेता के रूप में जीतने की घोषणाएं कर रहे हैं वे यह नहीं पता पा रहे कि आखिर कन्हैया अपने वोट बैंक में पिछली बार की अपेक्षा तिगुना मतों का ध्रुवीकरण किस आधार पर कर पाएंगे? अगर वे अपनी  भूमिहार आइडेंटिटी को आगे करते हैं तो उन्हें अपनी जेएनयू वाली भाजपा की एग्रेसिव विरोध की छवि ओझल करनी होगी, क्योंकि यहां के भूमिहारों का बड़ा हिस्सा भाजपा में दीक्षित है। और उन्हें राष्ट्रद्रोही मानता है । ऐसा वे कर नहीं सकते, क्योंकि यही उनकी पूंजी है जिसकी बदौलत राष्ट्रीय मीडिया में उनकी वकत है। लेकिन अपनी इस भूमिहार छवि को वे ओझल भी नहीं होने देना चाहते। दिवंगत भाजपा नेता भोला सिंह और दिग्गभ्रमित कवि दिनकर को वे गले लगा रहे हैं, लेकिन जय भीम, लाल सलाम का उनका स्लोगन फिलहाल स्थगित कर दिया गया है। ऐसे में उनका एक ही जोर है कि मोदी विरोधी अपनी इस आक्रामक छवि को मुसलमानों में कैश किया जाये। इसके लिए बाजाब्ते सही गलत, जायज-नाजायज हर तरह के प्रोपेगेंडे की आजमाइश की जा रहे हैं। कभी गुजरात से तिस्ता सितलवार आ रही हैं तो कभी शबाना आजमी और जावेद अख्तर। कभी नजीब की मां, तो कभी शेहला राशीद। कभी दारूल उलूम नदवातुल उल्लमा लखनउ के उस्ताद नरुल्लाह नदवी का खुला पत्र जारी हो रहा है। ये सभी मुस्लिम परवरदिगार तनवीर हसन साहब को कन्हैया के समर्थन में बैठने की सलाह दे रहे हैं, उनकी ऐसी की तैसी कर रहे हैं और मुस्लिम मतदाताओं को संबोधित  कर रहे हैं कि अगर उन्हें तनवीर को ही वोट करना है तो उससे अच्छा है गिरिराज को वोट करें कम से कम वह इसकी अहसान तो मानेंगे। क्या ये वामपंथ या किसी लोकतांत्रिक बौद्धिक की आवाज हो सकती है जहां इस तरह की घृणा एक ऐसे उम्मीदवार के बारे में उसके ही कौम के लोगों द्वारा दी जा रही है जिसका एकेडमिक और राजनीतिक कैरियर स्वयं बहुत साफ सुथरा रहा हो। यह भाजपा के मुस्लिम कार्ड से किस तरह भिन्न है?
उद्देश्य अगर चुनाव जीतना ही था, और वह भी नैतिक-अनैतिक किसी तरह से-तो जिस तरह के अपकर्म कैडरबेस भाजपा या कैडररहित क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता प्राप्ति के लिए करती रही हैं उससे कन्हैया और उनकी सीपीआई अलग कैसे है? यहां तो पार्टी में भी एक जर्बदस्त विभाजन है सिर्फ कन्हैया ही कन्हैया हैं शेष की कोई चर्चा तक नहीं। राज्य के दूसरे हिस्से में खड़े उनके उम्मीदवारों का क्या होगा, वे सीट निकाल पाएंगे भी या नहीं इसकी कोई चिंता नहीं है। अजीत सरकार के हत्यारे पप्पू यादव से हाथ मिलाने का प्रसंग हो या दिवगंत भाजपा सांसद भोला सिंह का माल्यार्पण-या फिर पार्टी द्वारा दबंग रणवीर यादव की पत्नी कृष्णा यादव से पार्टी से लड़वाने के लिए मिलना, जिसे बाद में कृष्णा यादव ने ही नकार दिया। या फिर पार्टी से उपर उठकर ज्ञात-अज्ञात स्रोतों से क्राउड फंडिंग ये सारे सवाल ऐसे हैं जिसपर बात की जानी चाहिए।
बेगूसराय में जो कुछ हो रहा है उसमें बहुत ज्यादा आशंका इस बात की है कि वहां से गिरिराज सिंह चुनाव में बाजी मार ले जाएंगे, क्योंकि ‘कन्हैया पक्ष की पूरी कोशिश मुस्लिम वोट बैंक में सेंध लगाने की है। और इसके लिए उनके अनेक गिरोह अफवाह की बरसात कर रहे हैं। अब तो यह स्पष्ट दिखने लगा है कि उनकी पूरी लड़ाई किस तरह तनवीर हसन और राजद के खिलाफ आक्रामक तरीके से सोशल मीडिया और अखबारों के जरिये जारी है। कन्हैया और उनके फालोअर्स एवं उनके नाम से चलनेवाले सोश लमीडिया पेज फेक न्यूज अक्सर आते रहे हैं जिसकी तथ्यपरक पड़ताल सरोज कुमार ने अपने फेसबुक पर की है। सबलोग ब्लॉग्स में अनीश अंकुर ने तो बाजाब्ता कन्हैया के बहाने पिछड़ा नेतृत्व, त्रिवेणी संघ, समाजवादी आंदोलन और लालू प्रसाद के शासन तक को विक्टिमाइज किया है, लेकिन इतने शातिराना और फूहड़ सतही भूमिहारी सनक में कि उनकी पूरी मूर्खता सामने आ गई है। न तो वे त्रिवेणी संघ को जानते हैं, न समाजवादी आंदोलन को, बरना बीपी मंडल को ही उस आंदोलन का मुख्य सूत्रधार मान हास्यास्पद निष्कर्ष पर नहीं आता। उन्हें बतलाना चाहिए कि जब लालू जी भूमिहारों के छंटे हुए छाड़नों को आगे कर रहे थे तो उनकी ही गोद में बैठी सीपीआई क्या कर रही थी? क्यों एक-एक कर जहानाबाद और उनके दूसरे आधार क्षेत्र छूटते चले गए और एक जिले और जाति में ही सिमट कर रह गई सीपीआई?  उन्हें इसका का भी स्पष्टीकरण देना चाहिए कि स्वयं भूमिहारों लेखकों की केदारदास श्रम समाज अध्ययन संस्थान में बैठक कर ‘कन्हैया के पक्ष में सभी साहित्यकार एकजुट’ की फर्जी खबर छापते रहे हैं। इसके माध्यम से आखिर आप किस तरह का आदर्श स्थापित कर रहे हैं। कभी चिंताहरण ट्रस्ट से सुशील मोदी को माल्यार्पण करेंगे और एनडीए समर्थित सरकार की सभी आर्थिक अर्हताएं हासिल करेंगे और कहेंगे कि हम प्रगतिशील हैं। आश्चर्य तो इस बात का है कि किशन कालजयी जैसे सो कॉल्ड प्रगतिशील भी कन्हैया के बहाने पिछडों के नीचा दिखाने के एक अभियान में शामिल हैं। आनेवाला समय उनक्व्व भी नोटिस लेगा।

शोहरत सीपीआई मॉडल की ही क्यों
बेगूसराय और कन्हैया प्रकरण ने बहुत सारी चीजों को साफ किया है। इसने यह भी स्पष्ट किया है कि इस देश का एकेडमिक और बौद्धिक वर्ग कितना पानी में है। यह भी कि उन्हें वामपंथ का बेगूसराय वाला सीपीआई मॉडल ही क्यों पसंद है? आरा वाला सीपीआई एमएल मॉडल क्यों पसंद नहीं है? इसका भी अपना एक क्लास इंटरेस्ट है जिसके आईने में उनकी मंशा को पढ़ा जाना चाहिए। बेगूसराय में दिल्ली, मुम्बई, गुजरात और देश के अलग-अलग हिस्सों की बौद्धिक बिरादरी ने शिरकत की लेकिन  आरा में नहीं जबकि वहां भी सीपीआई एमएल से राजू यादव जैसे संघर्षशील नौजवान खड़े हैं। बेगूसराय से कही ज्यादा जनसंघर्ष भोजपुर में माले का रहा है जिसे गठबंधन का समर्थन भी प्राप्त है।
दिलीप मंडल ने बहुत सही लक्षित किया है कि वामपंथ के अगर दो आधार मानें तो वह आरा और बेगूसराय होगा। बेगूसराय को सीपीआई का गढ़ माना जाता है। बिहार का लेनिनग्राद और मिनी मास्को कहा जाता है। लेकिन यह कैसा लेनिनग्राद है जहां अब तक के 14 सांसदों में मात्र दो को अपवाद मानें तो अभी तक वहां से एक ही जाति के सांसद होते रहे। और सीपीआई के भी जो दो सांसद हुए वह भी उसी कुल गोत्र के। यह इस लेनिनग्राद में ही संभव था कि सीपीआई से प्रशिक्षित होने वाले भोला सिंह अंतिम दौर में भाजपा के सांसद बन जाते हैं। लेकिन घबराइए नहीं वामपंथ का एक दूसरा मॉडल भी है जो आरा में अवस्थित है। और यह वाकई सर्वहारा क्रांति का प्रतीक रही है। यह सीपीआई एमएल का आधार क्षेत्र है। यहां पार्टी की राज्यकार्यकारिणी हो या जिला कार्यकारिणी इसमें बेगूसराय वाली बात नहीं है। इसमें विभिन्न जातियों की हिस्सेदारी है। इस मॉडल ने जगदीश  मास्टर, चंद्रमा प्रसाद, जीउत पासवान और राजू यादव जैसे प्रतिनिधि दिए हैं जो विभिन्न जातियों से आते हैं। 70 के दश क में पनपी नक्सलवादी चेतना का सबसे मजबूत गढ भोजपुर ही रहा, जहां से जगदीश  मास्टर, रामेश्वर अहीर जैसे श हीदी क्रांतिकारी पैदा हुए और मधुकर सिंह जैसे राजनैतिक चेतना से संपन्न कथाकार। इस भूमि ने आरा स्कूल के कथाकारों की एक स्वतःस्वफूर्त पीढ़ी पैदा हुई जिसने हिन्दी कथा साहित्य को एक नई माने दिए। लेकिन बेगूसराय में ऐसा कुछ हुआ क्या? जिस दिग्गभ्रमित राष्ट्रकवि दिनकर को लेकर इतना प्रोपेगेंडा रचा जाता रहा, खुद उनका लेखन क्या है ,उनका कर्म कैसा रहा। जब 42 का आंदोलन चल रहा था तो अंग्रेज सरकार की चाकरी कर रहे थे। विभिन्न प्रकार की नौकरियां करते रहे, राज्यसभा का सुख भोगते रहे। उनके लेखन में पौराणिकता और यथास्थितिवाद के सिवा है क्या? उर्वशी,परशुराम की प्रतीक्षा और ‘हारे को हरिनाम’जैसे प्रतीकों और बिम्बों की तह में जाएं तो हकीकत समझते देर नहीं लगती कि भाजपा में उन्हें क्यों पसंद करती रही है। यह अकारण नहीं कि बड़े मोदी दिनकर की जयंती मनाते हैं और भाजपा पालित सांस्कृतिक संस्थाएं दिनकर पर सरकारी आयोजन करती रही हैं। क्या मधुरक सिंह और आरा स्कूल के वामपंथ में ऐसी सूराख है जिससे सहारे कोई दक्षिणपंथी समूह अपना हित साध सके? बावजूद इसके अगर हमारी मीडिया, अकादमिया की दिलचस्पी उसमें नहीं है तो यह समझना कठिन नहीं है कि उनकी दिलचस्पी उसमें क्यों नहीं है? निश्चय ही इसके पीछ कहीं न कहीं वो विचार सूत्र ही हैं जो दर्षाते हैं कि वामपंथ का बेगूसराय मॉडल ही उन्हें क्यों प्रिय हैं?

पटना में अधिकतम सवर्ण और स्वजातीय साहित्यकारों की खबर बनी सभी साहित्यकारों की एकजुटता की

फासीवाद को शिकस्त वामपंथ नहीं, सामाजिक न्याय देगा

यह एक ठोस आजमाई हुई सच्चाई है कि लालू प्रसाद और उनकी पार्टी राजद ही फासीवाद विरोध के सबसे बड़ी प्रतीक रहे हैं। इसकी कीमत उनसे राजनीतिक तौर पर भाजपा, वामपंथ और अपर कास्ट मीडिया सब ने बसूली है। 90 के दशक में मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले सर के बल खड़ी बिहार की दशकों अपर कास्ट वर्चस्व की राजनीति को उन्होंने पैरों के बल खड़ा किया। बिहारी समाज की विभिन्न संस्थाओं में पहली बार बहुजन समाज को हिस्सेदार बनाया और 90 के रामरथ यात्रा के समय से आज तक भाजपा के फासीवाद का सबसे करारा जबाव दिया। बिहार और हिन्दी पट्टी को गुजरात बनने से रोक लिया। भाजपा की राजनीति हिन्दुओं की वर्णों में विभक्त छवि को ढंककर उनकी एकीकृत छवि को कैश करना चाहती रही है ताकि वह ब्राहणवाद की अपनी वैचारिकी को अक्षुण रूप में सुरक्षित रख सके। यही काम यहां वामपंथ भी करती रही है, लेकिन भाजपा उनसे एक कदम आगे की सोचती है वह कई स्तरों पर काम करती रही है जाहिर है सामाजिक न्याय की काट के लिए 90 के दशक में अटल और आडवाणी के मोदी काल में उसने सोश ल इंजीनियरिंग भी खूब जमकर की। कर्पूरी ठाकुर को खलनायक बनाने वाली भाजपा नई सदी में उन्हें भारत रत्न देने की वकालत करती है, जुब्बा साहनी, बाबा चौहड़मल आदि दलित सबाल्टर्न नायकों को आगे करती है वामपंथ ने सोशल इंजीनिरिंग का बेस लिया लेकिन पार्टी में सवर्ण वर्चस्व में कटौती स्वीकार नहीं की। लालू प्रसाद जैसे नेता भाजपा को सबसे मजबूत मुकाबला इस लिए देते रहे हैं कि उन्होंने हिन्दुओं की इस एकीकृत पहचान को तोड़ा। आरक्षण और शासन का हिस्सेदारी बनाया।

यहां एक अंतर सीपीआई और भाजपा- दोनों पार्टियों के स्तर पर यह भी है कि 90 के दशक वाली भाजपा अटल आडवाणी सरीखे ब्राहणों को आगे करके लोकतंत्र की मार्फत जिस हिन्दुत्व की लड़ाई लड़ रही थी, वही भाजपा अब चायवाले अतिपिछड़े नरेंद्र मोदी को आगे करके सोशल इंजीनियरिंग की खाल में लोकतंत्र की मार्फत चुनाव मैदान में है। उसने हाशिये की बड़ी आबादी को अपने कोर ग्रुप का मुख्य एजेंडा बना लिया है। कर्पूरी ठाकुर का विरोध करने वाली भाजपा ही है, जो उन्हें भारत रत्न देने की आवाज मुखर करती रही है। यह भाजपा ही है जो बाबा चौहड़मल और जुब्बा साहनी जैसे दलित पिछड़े नायकों की जयंतियां मनाती रही है। लेकिन वर्गीय एप्रोच को मुख्य आधार मानने वाली सीपीआई 70 साल पहले जिस भूमिहारवाद की खोल में थी, आज भी उससे बाहर नहीं आई है। यह तो भाजपा की भोंडी नकल भी नहीं कर पा रहे उनका मुकाबला कहां से कर पाएंगे। भाजपा के अंदर वंचितों की पर्याप्त हिस्सेदारी है, तभी वह सोशल इंजीनियरिंग के खेल में सफल भी हो रही है लेकिन सीपीआई पार्टी में भूमिहार वर्चस्व बनाये रखकर अपेक्षा करती है कि मुस्लिम दलित उन्हें वोट करें। बिहार में इसी कारण लालू प्रसाद इन दोनों ही शक्तियों के निशाने पर रहे। यह एक अजीब स्थिति है कि वामपंथ और भाजपा दोनों के टारगेट में यहां की अल्पसंख्यक कौम और सामाजिक न्याय की वाहक यादव समुदाय ही हैं। यह अकारण नहीं कि भाजपा ने अपनी पूरी ताकत यादवों पर लगाई। यहां के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र यादव, भाजपा अध्यक्ष नित्यानंद राय और बिहार सरकार में मंत्री नंदकिशोर यादव। बावजूद इसके इनके वोट को वह ट्रांसफर नहीं कर पाई। वह इसलिए नहीं कर पाई क्योंकि उनकी इस मंशा को यह कौम बहुत अच्छी तरह समझती रही है।

वाम के निशाने पर तनवीर ही क्यों, गिरिराज क्यों नहीं

इस पूरे प्रकरण में यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि कन्हैया और उनकी सीपीआई. की राजनीतिक जमीन खिसकी हुई है और वे पूरी तरह से गोयबल्स थेयरी के दुष्प्रचार अभियान में संघ की गिरोहवाद का पूरा पैकेज अपने साथ लेकर आये हैं। यहां वे पूरी तरह से नरेंद्र मोदी की कार्बन कॉपी रूप में हैं। उसी तरह के जैकेट विज्ञापनों से बेगूसराय के अखबार पटे हुए हैं। यहां साम्यवाद पूंजीवाद से गलबहियां कर रहा है, जिस तरह कभी अनुपम खेर मोदी की ब्रांडिंग करते थे और फिल्मकारों का एक समूह उनकी जयगान में लहालोट हुआ जाता था कुछ-कुछ वही स्टाइल में मुम्बई से जावेद अख्तर, शबाना आजमी, स्वरा भास्कर और प्रकाश  राज कन्हैया के जयगान में लगे हैं। यहां अंतर मात्र ब्रांडिंग भर का है। सीपीआई और इनके जितने बौद्धिक वीर हैं सभी के सभी तनवीर और राजद पर ही निशाना साध रहे हैं और उन्हें चुनाव से हट जाने का दवाब बना रहे हैं। इसमें उनके सहायक हैं-जे.एन.यू.के अकादमिक बौद्धिक,मुम्बई के सिनेमाई रंगरूट, सोशोलॉजिस्ट,पत्रकार,संपादक, कुछ दलित, मुस्लिम, ओबीसी रणबांकुरे और एनजीओ कल्चर में रंगे खटमिठिया क्रांतिकारी। इसमें वे सीधे तौर पर गिरिराज की मदद कर रहे हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि गिरिराज जितेंगे तभी उनसे विरोध का उनका स्पेस बचेगा। अन्यथा तनवीर जीत गए तो वे इस लायक ही नहीं रहेंगे कि बेगूसराय से कोई नई राजनीति खड़ी कर सकें। गिरिराज होंगे तभी मुसलमान असुरक्षित होंगे, राष्ट्र भक्ति और देश द्रोह की बात होगी, जहां राजद आयी हिस्सेदारी की बात होगी, आरक्षण बचाने का मसला होगा, पार्टी में हिस्सेदारी का सवाल आएगा और यह जैसे ही मुखर होगा उनकी पूरी जमीन खिसकेगी ही क्योंकि सामाजिक न्यायिक की मतदाता शक्तियां वर्ग की ओट में उनके जातिवाद को बहुत करीब से देखती महसूसती रही है। इसलिए कन्हैया और उनके समर्थक किसी मूर्खता में नहीं अपितु जानबूझकर यह कम्पेन चला रहे हैं ताकि तनवीर के खात्मे के बाद उनकी राजनीति की जमीन को कोई पुख्ता आधार मुहैया हो। वे अपनी पूरी ताकत से तनवीर की पराजय के लिए मुसलमान मतदाताओं की वोट में सेंधमारी की कोशिश में लगे हुए हैं ताकि भारत को मिनी पाकिस्तानी बतलाने वाले गिरिराज सिंह की जीत सुनिश्चित हो और नवादा के मुसमानों की तरह ही बेगूसराय के मुसलमानों में भी दहश तगर्दी का माहौल पैदा हो। ऐसा होगा तो प्यारा कन्हैया सामाजिक न्याय के बड़े कोर ग्रुप मुसलमान की वोट के सहारे ब्राहणवादी मीडिया पर सवार होकर बिहार में अपर कास्ट के खोए हुए राजनीतिक वर्चस्व को आगामी बिहार विधान सभा चुनावों में एक बड़े सिम्बल बनकर स्थापित करने में कामयाब हो सकेंगे।

जरूर पढ़ें: सीपीआई-विधायक दल के पूर्व नेता ने पार्टी को कहा था लालू प्रसाद का पिछलग्गू

इन प्रवृतियों के पीछे दरअसल एक जातिवादी अपर कास्ट उतेजना काम कर रही है, जो ‘जय भीम, साल सलाम, और सामंतवाद से आजादी’ के स्लोगन के रूप में इतेफाकन दिल्ली से शुरू हुई थी और जल्द ही वामपंथ के बेगूसराय मॉडल में फिट होती हुई संघी भोला सिंह के माल्यार्पण तक आकर खत्म हो गई। लेकिन हिन्दी की एकेडमिया,मीडिया इसे अभी भी जीवित रखना चाहती है ताकि सामाजिक न्याय को उसकी पटरी से उतारकर वहां एक नए किस्म का ब्राहणवाद को स्थापित किया जा सके। यहां अंतर बस इतना ही है कि इस बार वह भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद के रूप में नहीं, अपितु उसके काउंटर पार्ट के रूप में खुद को स्थापित करने की अपनी अंतिम लड़ाई की आजमाईश कर रही है।

बेगूसराय के बहुजन मतदाताओं अभी भी वक्त है चेतो, इन गिरहकट्ट बहुरूपियों को पहचानों, उनकी मंशा की शिनाख्त करो। तुम्हारे सामने बिहार में नरसंहारों को अंजाम देनेवाले इनके ही कुलगोत्री रहे, क्या हुआ उनका, कोर्ट ने सारे अपराधियों को रिहा कर दिया इसकी लड़ाई लड़ने तो ये मुम्बईया और दिलीआईट नहीं आये? उनके अच्छे, लच्छेदार भाषणउन्हीं को सलामत होवे, तुम उनकी धुर्तता को तनवीर को मतदान करके बेनकाब करो मतदाताओं!

अरुण आनंद फ्रीलांस जर्नलिस्ट हैं.

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