यह संपादकीय आखिरी तीन चरणों के चुनाव के पहले लिखा गया था, 16 मई को। इसे यथावत रख रहा हूं। चुनाव को जिस पृष्ठभूमि में मैं देख रहा था, उसकी एक बानगी है यह। मैं देख रहा था कि कुछ हद तक सत्ता विरोधी माहौल है। सत्ता में बैठे लोगों के बड़बोलेपन और नफरती एजेंडों ने उसके जनाधार कमजोर किए हैं, लेकिन विपक्ष दृष्टिहीन और दिशाहीन है, इसलिए भाजपा और मोदी को हराने का यह सुनहरा अवसर जाया होने वाला है। यही हुआ। तब हम निश्चित हार के बावजूद विभिन्न माध्यमों से इंडिया गठबंधन के लिए आशावान माहौल बनाने में लगे थे। वजह साफ थी। पटना में इंडिया गठबंधन की पहली बैठक में ही सामाजिक न्याय की अनुगूंज बन गई थी। हमारी प्रतिबद्धता सामाजिक न्याय के साथ है।
अंक प्रकशित होते हुए चुनाव संपन्न हो चुका है, सरकार का गठन हो चुका है। 18वें लोकसभा में कुल 74 महिला सांसद चुनकर आयी हैं , जो 17वें से चार कम हैं । 13.3 प्रतिशत महिला सांसदों का अनुपात चुनावी शोर के बीच एक हकीकत है। भाजपा से कुल 31 महिला सांसद चुनकर आयी हैं , कुल भाजपा सांसदों का 12.92 प्रतिशत, कांग्रेस ने 13 महिला सांसदों को लोकसभा भेजा है 13.13 प्रतिशत तृणमूल कांग्रेस ने सबसे अधिक अनुपात में महिला सांसद भेजे हैं कुल 11 यानी 37 प्रतिशत।
‘मुझे मालूम है कि आज हम, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से विभाजित हैं । हमने विरोधी छवियां बनाई हैं और मैं भी युद्ध की छावनी बना रही एक जमात का नेता हूं। लेकिन ऐसा होते हुए भी मेरा पूरा विश्वास है कि परिस्थिति और समय के आते ही, अपनी एकता में कोई भी बात रुकावट नहीं डाल सकेगी। मेरे मन में इस संबंध में संदेह नहीं है कि यद्यपि जातियां और पंथ अनेक हैं , फिर भी हम एक-राष्ट्र बनेंगे।’
(संविधान सभा में डॉ. अम्बेडकर, 9 दिसंबर 1946)
यह अंक जब आप पढ़ रहे होंगे तबतक देश में नई सरकार बन चुकी होगी। आवेग और आवेश का दौर थम चुका होगा। तब ठहर कर सोच सकेंगे कि सामाजिक न्याय कैसे होगा और उसमें स्त्रियां कहां होंगी?
भाजपा और संघ परिवार को इस चुनाव में जनता से चुनौती मिल रही थी। एक बड़ा सत्ता विरोधी रुख था जनता के बीच। भाजपा द्वारा फैलाये जा रहे साम्प्रदायिक उन्माद के प्रति जनता में अनुत्साह था। राम मंदिर आदि को प्रधानमंत्री मोदी कोई राजनीतिक प्रतिफल में बदलने में सफल नहीं हुए थे, लेकिन सत्ता विरोधी मन को विपक्ष आक्रोश में नहीं बदल सका। सामाजिक न्याय की जो मुहिम बिहार से शुरू हुई थी उसे राहुल गांधी ने वाचिक परम्परा में ही डाल दिया, जबकि नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन की सरकार ने जाति सर्वे करवाकर और आरक्षण का दायरा बढाकर एक सीधा मुकाबला और उत्साह पैदा किया जरूर था। उसी का असर रहा कि भाजपा द्वारा संविधान बदले जाने की संभावना और आरक्षण पर खतरा जनता के बीच बातचीत का विषय बन गया। भाजपा के नेताओं के बयानों से इस आशंका को और बल मिला है। प्रधानमंत्राी ने सैफई के अपने भाषण में इस धारणा को मजबूत ही किया कि भाजपा की सरकार संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। गया में चुनाव प्रचार में उन्होंने संवैधानिक आस्था, उनके अनुसार धार्मिक आस्था की तरह, के निर्माण की बात की। यह आस्था का विचार ही संविधान की तार्किकता के खिलाफ है।
जैसे-जैसे चुनाव प्रचार आगे बढ़ा प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, यूपी के सी.एम आदित्यनाथ ने सांप्रदायिक विभाजन के भाषणों की झड़ी लगा दी। इस उन्माद के बरक्स हिंदुत्व को लेकर कोई स्पष्ट स्टैंड विपक्षी दलों में नहीं दिखा। विपक्षी दल शरमाये, सकुचाये हिचक के साथ राजनीति करते रहे। इस या उस अस्त्रा को आजमाते रहे। जिसे आजमाने का स्वांग मुख्य विपक्षी नेता राहुल गांधी कर रहे थे, सामाजिक न्याय को आजमाने का, वह उनके जमीनी कार्यक्रमों का हिस्सा नहीं, वादों का हिस्सा था।

सबसे बड़ा संकट है राजनीति का हिंदुत्व की ओर सरक जाना। इसी कारण से आखिरी मुस्कान तो संघ परिवार के होठों पर ही होगा। उस मुस्कान को क्षीण करने के लिए एक विजन और साहस वाले नेतृत्व की जरूरत होगी। पूरा चुनाव स्थानीय मुद्दों और नेताओं के प्रभाव में रहा, खासकर हिंदी पट्टी में। मेरे जैसे लोग इस वक्त हालांकि यह मानते हैं कि विपक्ष में फिलहाल स्पष्ट नेतृत्व लेता कोई नेता नहीं है, लेकिन सबसे पहली जरूरत है कि संविधान का नाम लेकर संविधान की धाज्जियां उड़ाने वाले, लोकतंत्र को कमजोर करने वाले, लोगों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नष्ट करने वाले समूह को सत्ता से हटाया जाए, फिर देश का जनादेश और राजनीतिक जमातें तय करने में सक्षम होंगी कि प्रधानमंत्री कौन होगा, नेता कौन होगा? लोकतांत्रिक और समतावादी स्पेस के सभी समूहों को अपने वैचारिक मतभेद को बरकरार रखते हुए भी ऐसा करना चाहिए, ताकि सत्ता परिवर्तन के बाद समतावादी स्पेस को मजबूत करने का संघर्ष वे कर सकें।
महिलाओं के लिए संसद में उचित भागीदारी की डगर आज भी बेहद मुश्किल है। 2024 के लोकसभा चुनाव में सभी पार्टियों ने टिकट देने के मामले में उन्हें ठगा। ADR (ASSOCIATION FOR DEMOCRATIC REFORMS ) के अनुसार 9.5 प्रतिशत से महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं , जिनमें एक बड़ी संख्या निर्दलीय उम्मीदवारों की है।
राष्ट्रीय पार्टियों में 446 सीटों पर भाजपा लड़ रही है, उनमें 69 सीटों पर उसने महिला उम्मीदवार खड़े किये हैं , लगभग 15.4 प्रतिशत, वहीं कांग्रेस ने 41 महिला उम्मीदवार दिये हैं, लगभग 12.5 प्रतिशत । बसपा की 37, सी.पी.आई.एम की 7 और सी.पी.आई की 2 महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं । सी.पी.आई.एम ने लगभग 13 प्रतिशत महिला उम्मीदवार दिये हैं ।
इलेक्शन कमीशन आफ इण्डिया के अनुसार 12 राज्यों में महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से अधिक है। इनमें आसाम में पुरुषों की तुलना में सबसे अधिक महिला मतदाता हैं लेकिन वहां मात्रा 12 महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। पार्टियों ने टिकट देने के मामले में नेताओं के रिश्तेदारों को ज्यादा तरजीह दी है। संसद में यूं तो 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का प्रावधान पास हो गया है, लेकिन शातिर दिमाग हुक्मरानों ने उसे अगली जनगणना और डेलीमेटेशन के लिए टाल दिया है।
सवाल है कि जो पार्टियां महिलाओं के हक की बात करती हैं वे भी उन्हें क्यों छलती हैं। बिहार में भाजपा ने एक भी महिला उम्मीदवार नहीं दिया है। कांग्रेस ने बिहार में, दिल्ली में एक भी महिला उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया है। महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी का संघर्ष अभी लंबा रहने वाला है।
2023 की फरवरी में हमने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से मुलाकात की। कांग्रेस ने इसके पहले ही रायपुर कन्वेंशन में सामाजिक न्याय को अपना लक्ष्य घोषित किया था। हम कुछ लेखिकाओं, पत्रकारों के साथ उनसे मिलकर देश भर के स्त्रीवादी लेखकों, एक्टिविस्टों और पत्रकारों की मांगों का एक पत्र देने गये थे उन्हें। वे मांगें कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के सामाजिक न्याय की घोषणा और कांग्रेस के नारे ‘लड़की हूं तो लड़ सकती हूं के अनुरूप थीं। उन मांगों की अपनी पृष्ठभूमि थी। दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 3 अगस्त, 2022 को इकट्ठा हुए स्त्रीवादियों और स्त्रीवादी व अम्बेडकरवादी संगठनों ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर ये मांगें भेजी थी, तथा कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकर्जुन खड़गे से मिलकर भी उन्हें मांगपत्र सौपा गया था। बिहार विधानसभा में भी इनमें से कुछ मांगें विधायक इंजीनियर ललन कुमार ने उठायी।
इस अभियान का अगला चरण आया जुलाई 2023 में। लोकतांत्रिक राज्य के निर्माण के लिए स्त्रीवादी नागरिकों द्वारा पारित राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक संकल्प राजनीतिक दलों को उनके अपने एजेंडे में शामिल करने व जिन दलों की सरकारें हैं, उन्हें अपने यहां लागू करने के लिए एक मेल कांग्रेस, बीजेपी, सीपीआई, सीपीएआई एम, सीपीआई-एमएल, जदयू, राजद, एनसीपी, तृणमूल कांग्रेस सहित कई दलों के अध्यक्षों को व राहुल गांधी, नीतीश कुमार, डी राजा, सीताराम येचुरी आदि नेताओं को भेजा गया। कुछ को मिलकर भी दिया गया। 10 सूत्री प्रस्ताव स्त्रीकाल के 20वें वर्ष में 23 जुलाई 2023 को देश भर के स्त्री वादी विदुषियों, लेखिकाओं, सामाजिक-राजनीतिक नेतृत्व की एक आनलाइन बैठक में पारित हुए। प्रसिद्ध अम्बेडकरवादी साहित्यकार, चिंतक व एक्टिविस्ट उर्मिला पवार और सुशील टाकभौरे की अध्यक्षता में बैठक हुई। यह बैठक नागपुर में बाबा साहेब अम्बेडकर की उपस्थिति में हुए अखिल भारतीय शेड्यूल्ड कास्ट महिला सम्मेलन (20 जुलाई,1942) की ऐतिहासिकता में हुई।
ज्ञातव्य है कि 20 जुलाई 1942 के नागपुर सम्मेलन में सुलोचनाबाई डोंगरे की अध्यक्षता में स्त्रियों ने जो प्रस्ताव पारित किये थे उनमें से आज भी कई प्रासंगिक हैं।
पारित प्रस्ताव
1. नागपुर के अखिल भारतीय दलित महिला परिषद (20 जुलाई 1942) में पास, वे 7 प्रस्ताव थेः
‘सरकार से निवेदन है कि जिस तरह से मध्यवर्ती और प्रांतीय विधान मंडल में, स्थानीय स्वराज संस्थाओं में, स्त्री प्रतिनिधि ली जाती हैं, उसी तरह से अस्पृश्य मानी गई महिलाओं की सर्वांगीण उन्नति के लिए उनके प्रतिनिधि उक्त उल्लिखित सारे स्थानों पर आरक्षित स्थान के माध्यम से रखे जाने की व्यवस्था करे को नया सन्दर्भ देते हुए प्रस्ताव है कि महिला आरक्षण पारित हो, जिसमें ओबीसी महिलाओं के लिए भी आरक्षण कोटा तय हो। तथा ऐतिहासिक तौर पर 1942 की उक्त परिषद को ही महिला आरक्षण का प्रथम प्रस्तावक माना जाए।
2. नागपुर के अखिल भारतीय दलित महिला परिषद (20 जुलाई 1942) में पास 8वें प्रस्ताव कि
‘यह परिषद यह तय करती है कि ‘अखिल भारतीय दलित महिला फेडरेशन’की स्थापना करते हुए उसके खर्च के लिए आवश्यक कोष बनाया जाए। को अलग विस्तार और सन्दर्भ देते हुए दलित, आदिवासी, आदि महिला आयोग की स्थापना की जाए। महिला आयोगों को स्वायत्तता हो और दंडात्मक अधिकार भी मिले। आयोग में अनिवार्य रूप से आरक्षण के माध्यम से एससी, एसटी, ओबीसी, पसमांदा सदस्यों को नामित किया जाए।
3. राज्यों और केंद्र के आयोगों,अकादमियों (साहित्य-संस्कृति आदि सहित सभी अकादमियों) में दलित, आदिवासी, ओबीसी, पसमांदा महिलाओं की भागीदारी आरक्षण सिद्धांत के साथ सुनिश्चित हो।
4. केंद्र एवं सभी राज्यों में दलित साहित्य अकादमी की स्थापना की जाए।
5. स्त्री -पुरुष व अन्य वर्ग की सामाजिक इकाइयों में समानता को सुनिश्चित करते हुए पूरे देश के लिए ‘जेंडर जस्ट कॉमन सिविल कोड’ बने, जो 10 सालों तक ऐच्छिक हो। जेंडर जस्ट कॉमन सिविल कोड का ड्राफ्ट व्यापक विमर्श के लिए हितधारकों के समक्ष रखा जाए। यह बाबा साहेब अंबेडकर और संविधान सभा की महिलाओं की राय के अनुरूप होगा।
6. सरकार के आर्थिक प्रयोजनों में दलित,आदिवासी,ओबीसी,पसमांदा महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित हो,जैसे ठेकेदारी आदि में।
7. शिक्षा और स्वास्थ्य का सरकारीकरण तथा महिलाओं की शत-प्रतिशत शिक्षा का लक्ष्य निर्धारित किया जाए। नागपुर अधिवेशन के छठे प्रस्ताव के साथ यह प्रस्ताव पढ़ा जाए। आज भी कई वंचित समुदायों की महिलाओं का साक्षरता दर 3 से 10 प्रतिशत है।
8. भूमि का राष्ट्रीयकरण सुनिश्चित किया जाए।
9. देश भर में स्वच्छ सार्वजनिक प्रसाधन गृह का निर्माण और संचालन किया जाए, ताकि महिलाओं की सार्वजनिक जगहों पर भागीदारी बढ़े।
10. बाबा साहेब डा. अम्बेडकर के लेखन और भाषण में उनके अपने पत्रों, भाषणों, लेखों, किताबों के अलावा अखबारों की रिपोर्टिंग भी उनके वांग्मय में शामिल किए गये हैं। उन्हें वांग्मय से हटाया जाना चाहिए। अखबारों की रिपोर्टिंग संसद की पटल पर भी आथेंटिक नहीं माने जाते हैं। इसके लिए विचार करने के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बने।
प्रस्तावक प्रतिशत
उर्मिला पवार, मुंबई
सुशीला टाकभौरे, नागपुर
संजीव चंदन,पटना
नूतन मालवी, वर्धा
मनोरमा, बंगलोर
अरुण कुमार, दिल्ली
विनय ठाकुर, पुडुचेरी
विजय झा, दिल्ली
विवेक सिन्हा, रांची
गीता सहारे, दिल्ली
रश्मि रावत, दिल्ली
रक्षा गीता, दिल्ली
सुधा अरोड़ा, मुंबई
छाया खोब्रागडे, नागपुर
अनिता भारती, दिल्ली
नूर जहीर, लंदन
कल्याणी ठाकुर, कोलकाता
कुसुम त्रिापाठी, मुंबई
धम्म संगिनी, नागपुर
नीतिशा खलखो, आसनसोल
जमुना बिनी, अरुणाचल प्रदेश
मीना कोटवाल, दिल्ली
जितेंद्र बिसारिया, ग्वालियर
कविता कर्मकार, आसाम
क्विलिन काकोती, आसाम
प्रिया राणा, मुंबई
दीप्ति, दिल्ली
आफरीन, दिल्ली
सुनीता, सीवान
सरोज कुमारी, दिल्ली
कालीचरण स्नेही, लखनऊ
असंगघोष, भोपाल
अशोक मेश्राम, वर्धा
साकिब अशरफी, पटना
स्त्री काल के साथ देश भर की एक्टिविस्ट स्त्रिायों, साहित्यकारों की इस मांग की दिशा में सरकारों से बात की जानी चाहिए। आखिर 33 प्रतिशत आरक्षण लागू होने के बाद महिला उम्मीदवार क्या पुरुषों की प्रतिच्छाया होंगी?
महिला आरक्षण नारी शक्ति वंदन कानून के रूप में पारित हो गया है। वास्तव में अभी आरक्षण को लागू करने में समय लगेगा। कारण सत्ता पर काबिज हुक्मरानों में पुरुषों की बहुलता और उनकी मर्दवादी सोच है। कानून के प्रावधान में ही व्यवस्था है कि डीलिमिटेशन के बाद आरक्षण लागू होगा। इसके लिए जनगणना की जरूरत होगी। उसके बाद डीलिमिटेशन की प्रक्रिया होगी। इसको लेकर दक्षिण के राज्य बेहद आशंकित हैं ।

स्त्रीकाल के हर मोड़ पर कुछ स्त्री वादी साथियों, लेखकों और चिंतकों का साथ रहा है, उनमें अर्चना वर्मा, रमणिका गुप्ता, रजनी तिलक, और सुजाता पारमिता का बेहद निकट साथ रहा। वे अब हमारे बीच नहीं हैं । पिछले चार-पांच सालों में इनका साथ छूटा। फुले-अम्बेडकरवादी चिंतक गेल आमवेट भी नहीं रहीं। यह अंक इन्हीं लेखिकाओं के योगदान और लेखन पर केंद्रित है।
रमणिका गुप्ता सोशल एक्टिविस्ट थीं, राजनेता थीं, साहित्यकार थीं, आदिवासी अधिकार की प्रवक्ता एवं जुझारू नेत्तृ थीं । वे खुदमुख्तार स्त्री थीं और स्त्रियों के आत्मसम्मान के लिए किसी भी हद तक जूझ सकती थीं। अर्चना वर्मा साहित्यकार और आलोचक के रूप में एक अलग पहचान रखती थीं। स्त्री काल द्वारा आयोजित ‘सावित्रीबाई फुले सम्मान की जूरी सदस्य के रूप में उनके सुझाव और उनका नेतृत्व महत्वपूर्ण होता था। सुजाता पारमिता पुणे के एफटीआईआई की पहली दलित महिला ग्रेजुएट थीं। कला और संस्कृति पर दलित दृष्टिकोण से स्त्री काल और गुलबर्गा विश्वविद्यालय, गुलबर्गा, कर्नाटक में उनके भाषण ने सबका ध्यान खींचा था। साहित्यकार और संस्कृति विमर्शकार के रूप में उनकी अपनी पहचान थी। उनके द्वारा संस्कृति के विभिन्न हिस्सों में हाशिये के समाजों के योगदान पर दिए गए भाषण, उनके लेख मेरी अपनी दृष्टि बनाने में महत्वपूर्ण रहे हैं। हिंदी की पहली दलित महिला आत्मकथा कार कौशल्या बैसंत्री की वह बेटी थीं। हमें इस बात का गर्व है कि वह मुझे अपना बेटा मानती थीं ।
रजनीतिलक साहित्यकार और उससे अधिक स्त्री अधिकारों की प्रबल प्रवक्ता और जमीनी संघर्षकर्ता थीं। उनके साथ हमने कई संघर्षों में हिस्सा लिया और साझा रूप से स्त्रीकाल ने उनके संगठन अखिल भारतीय दलित महिला संगठन के साथ मिलकर कई मुद्दे उठाये।
इस अंक के योजनाकार हैं अरुण कुमार। संपादक के रूप में मेरा काम इस योजना को अमलीजामा पहनाने की स्थितियां बनाना भर है। अरुण कुमार स्त्रीकाल के सम्पादकीय टीम के स्थायी सदस्य हैं । उद्देश्य और लक्ष्य उनके सपनों का हिस्सा हैं ।
पिछले दिनों उषा किरण खान भी नहीं रहीं और प्रोफेसर चौथीराम यादव ने भी हमें अलविदा कह दिया। उषा किरण खान उन लेखिकाओं में थीं, जो स्त्रीवादी कहलाने से परहेज करती रही हैं। उनका लेखन स्त्रियों की पीड़ा और उनके स्वप्न का लेखन जरूर रहा है। कई बार उन परम्पराओं के साथ भी उनके लेखन का लय दीखता है, जो स्त्री विरोधी परिवेश का तर्क निर्मित करती रही हैं। चौथीराम यादव लोकधर्मी आलोचक और चिन्तक थे। फुले-अम्बेडकरवादी परम्परा में सोचते थे। समतावादी आलोचना उनका केंद्रीय भाव था। जनकवि कवि सुरजीत पातर का भी इन्हीं दिनों देहांत हुआ। चौथी राम यादव, सुरजीत पातर और उषा किरण खान को स्त्री काल की ओर से हम श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
स्त्रीकाल अंक 38 का संपादकीय